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हमने पहले के ब्लॉगों में यह तो पढ़ा ही है कि चित्त की मूल वृत्ति "संकल्प, संस्कार और कामना" है | अर्थात, मन संकल्प करता है, बुद्धि संस्कार बनाती है और अहंकार कामना या इच्छा करता है | और फिर जब कोई एक इच्छा कर ली जाती है, तो फिर जीव उसी इच्छा की ही तरफ दौड़ने लग जाता है | यह जो चित्त की वृत्ति है, वही जीव की भी प्रवृत्ति होती है और फिर उसे उसी के अनुसार अगली धार्मिक परिस्थिति प्राप्त होती है | वह उसी अपने ख़ास प्रवृत्ति के अनुसार ही कर्म करता है और उसी प्रकार उसकी आगे गति होती है | बस यही धर्म के गति का मूल रहस्य है |
कुछ लोगों ने धर्म का एक बारह अरों वाले चक्र के रूप में वर्णन किया है (भगवान बुद्ध ने भी ऐसा ही कहा है), जो अज्ञान/अविद्या से आरम्भ होता है और जन्म-मरण के अनवरत चक्र तक पहुँचता है | आइये, इसे विस्तार से समझने का प्रयत्न करते हैं |
जब प्रारंभ में इस संसार की सृष्टि हुई, तो पुरुष ने प्रकृति में क्षोभ किया | इसके फलस्वरूप सर्वप्रथम पुरुष अपने स्वाभाविक सत्य स्वरुप को भूल गया | यह जो अपने सत्य स्वरुप से विलगाव और प्रकृति से लगाव हुआ, उसे ही अज्ञान कहा जाता है | प्रकृति का सबसे मौलिक और आरंभिक स्वरुप यही है, और इसी कारण प्रकृति को अविद्या कहा गया है | असल में यह प्राकृत अज्ञान कोई सचमुच का अज्ञान नहीं है, बल्कि सिर्फ अपने सहज ज्ञान और अपने सत्य स्वरुप का 'भूल जाना' मात्र है | यानि पुरुष प्रकृति के सामने आया और अपने ज्ञान को भूल गया | यह अविद्या/अज्ञान हुआ और यह धर्म-चक्र का सबसे पहला चरण है |
इसके बाद पुरुष अपने स्वाभाविक 'आत्मा' ऐसे स्वरुप को भूल कर 'जीव' ऐसे स्वरुप को जानता है | यानि 'मैं निर्मल, नित्यमुक्त, सच्चिदानन्दमय आत्मा हूँ' इस बात को भूक कर अपने को प्रकृति में घिरा पाता है | इस स्वरुप में वह अपने को अपने मौलिक मित्र श्री भगवान से बिछड़ा हुआ पाता है, और इसकारण अपने स्वयं के अस्तित्व को ही सत्य मान बैठता है | यह अवस्था ही अहंकार इस नाम से जानी जाती है | अर्थात पुरुष अपने स्वाभाविक स्थिति को भूल कर प्राकृत स्थिति, जिसे "महत्तत्व" कहा जाता है, को अपनी असली स्थिति मान बैठता है | यह अहंकार ही धर्म का दूसरा चरण है |
इसके बाद जीव संस्कार और संकल्प रुपी जाल में फंसता है | प्रकृति में जो अनगिनत विषय जीव के चारों और मंडरा रहे होते हैं, उनसे सम्बंधित संकल्प-विकल्प उसे प्राप्त होता है, और कई जन्मों के इकट्ठे हुए संकल्पों के कारण उसका संस्कार बनता जाता है | यह संकल्प-संस्कार ही धर्म का तीसरा चरण है, और इसी के साथ जीव के चित्त का पूर्ण निर्माण हो जाता है, जिसके तीन भाग हैं - (१) अहंकार, (२) महत्तत्व/बुद्धि और (३) मन/संकल्प |
इसके आगे जीव को एक शरीर प्राप्त होता है | वह जिस जिस प्रकार के संकल्प,संस्कार इत्यादि से जैसी जैसी अपनी वृत्ति बनाता रहता है, उसे वैसा वैसा शरीर प्राप्त होता रहता है | उस शरीर में उस उस प्रकार के इन्द्रिय लगे रहते हैं, जो तत्संबंधी विषयों को भोग सकें और उस उस प्रकार का लोक, देश,काल, नाम, रूप उसे प्राप्त होता रहता है | यह शरीर ही धर्म का चौथा चरण है, और उसके इन्द्रिय ही पांचवें चरण हैं | इन्द्रिय ही जीव को शरीर द्वारा संसार के विषयों से जोड़ते हैं |
असल में इन्द्रिय अपने अपने प्रकार के विषयों के प्रति आकर्षित होते हैं, और उन उन विषयों से उनका संपर्क होता है | इस बात की भी हम पहले चर्चा कर चुके हैं | जैसे आँख अपने विषय 'रूप' से ही संपर्क करता है , वह जिह्वा के विषय 'रस' से संपर्क नहीं करता ; भले ही 'रस' नामक विषय भी आँख के सामने आए, परन्तु वह विषय के 'रस' पर नहीं, बल्कि 'रूप' पर ही आकृष्ट होगा और उसी से जुड़ेगा | यह संपर्क ही धर्म का छठा चरण है |
इसके बाद, इन्द्रियों के अपने अपने विषयों से जुड़ने के कारण जीव को तत्संबंधी संवेदनाएं मिलती हैं | अर्थात अनुकूल विषय मिलने पर सुख और प्रतिकूल विषय मिलने पर दुःख मिलता है | और कभी कभी मिश्रित संवेदना भी मिलती है | अर्थात इन्द्रियों के माध्यम से जीव को भौतिक विषयों का ज्ञान प्राप्त होता है | इस भौतिक ज्ञान को, जिसका नाम संवेदना है, धर्म का सातवाँ चरण कहा गया है |
अब यह संवेदना रुपी ज्ञान ही है, जो हमारे चित्त को किसी ख़ास संकल्प को संस्कारित करने और फिर उस संस्कार को इच्छा में बदलने को प्रेरित करता है | यानी हमें जिस विषय में अत्यधिक सुख मिला होता है, हम उसके प्रति ज्यादा आकर्षित होते हैं, और जिस विषय में अत्यधिक दुःख मिला होता है, उसके प्रति ज्यादा विकर्षित होते हैं | नतीजा यह होता है कि जिस जिस विषय में ज्यादा सुख/दुःख मिला होता है, उसी का ज्यादा चिंतन करते है कि यह कहीं से मिल जाए या फिर कहीं यह हमें ना मिल जाए | फलस्वरूप उसी विषय का ज्यादा संकल्प-विकल्प होता है और उस से सम्बंधित संस्कार बलवान होते जाते हैं और अंततः वही हमारी कामना बन जाती है और फिर हम उस कामना को पाने के लिए उद्यत हो जाते हैं | यही 'कामना' का मूल रहस्य है और यह कामना ही धर्म का आठवाँ चरण है |
नतीजा यह होता है कि हम बार बार विषय भोग प्राप्त करते रहते हैं, और हम बार बार उनकी कामना करते रहते हैं | जितना विषय मिलता है, उतना ही कामना बलवती होती है | वेदों में यह प्रवृत्ति आसक्ति अथवा अनुराग के नाम से वर्णित है और विषयों के प्रति इसी अनुराग को धर्म का नौवां चरण कहा गया है |
इन नौ चरणों के कारण जीव की जो परिस्थिति होती है, वही जीव की सम्पूर्ण प्रवृत्ति अथवा भाव के नाम से प्रसिद्द है | हम जीवन भर जिस प्रवृत्ति या भाव को धारण करते हैं, मृत्यु के समय भी उसी में से कोई एक भाव जागृत होता है और नतीजतन हम अपने अगले जन्म को अपने इसी जन्मे में तय कर लेते हैं | यह भाव ही धर्म का दसवां चरण है और श्री गीता जी में इसी भाव/प्रवृत्ति की महत्ता का वर्णन करते हुए श्री भगवान् कहते हैं -
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरं |
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः || [अध्याय ८, श्लोक ६]
- हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! शरीर त्यागते समय जीव जिस जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस उस भाव को निश्चित रूप में प्राप्त होता है |
यानी जीव जिस भी भाव में अपने इस जीवन का अंत करता है, उसे के अनुसार उसे अपना अगला जन्म प्राप्त होता है | असल में मृत्यु के समय जीव केवल स्थूल देह का ही परित्याग करता है | मन-बुद्धि-अहंकार रुपी चित्त सदा उसके साथ चलता है | नतीजतन वह अपनी बलवान इच्छाओं, संचित संस्कारों और मृत्यु के समय उत्पन्न संकल्पों को साथ लेकर अपने अगले जीवन में प्रवेश करता है | फलस्वरूप अगले जन्म में उसे वैसी ही परिस्थितियाँ और वैसा ही देह-इन्द्रिय-समूह प्राप्त होता है जो उसके भाव/प्रवृत्ति के अनुकूल हों | यही हमारे पुनर्जन्मों का रहस्य है और यह बार बार जन्म लेने की आदत, जिसे जाति कहा जाता है, यह आदत ही धर्म का ग्यारहवाँ चरण है |
अंततः जीव अपने इच्छा, अपने भाव, अपने चित्त और अपने जन्म-इन्द्रिय-शरीर इत्यादि के ही द्वारा बार बार अनुराग और भोगों में पड़ता रहता है | यही जन्म-मृत्यु के अनंत चक्र का रहस्य है और यही संसार के सुख-दुःख का कारण है | यह जन्म-मृत्यु-सुख-दुःख रुपी भवसागर ही धर्म का बारहवां और अंतिम चरण है | इसप्रकार ही धर्म आगे आगे गति करता रहता है और साथ ही साथ जीव भी गति करता रहता है और भवसागर में भटकता रहता है |
इन बारह चरणों में से तीन, संस्कार, कामना और भाव अत्यंत महत्वपूर्ण हैं | क्योंकि यही हमारे चित्त की मूल वृत्ति है, और यही हमारे पूरे जीवन और आगे भावी जीवन को भी प्रभावित करते हैं | हमारी जैसी चित्त-वृत्ति होती है वैसा ही हमारा धर्म होता है, वैसे ही हम कर्म करते हैं, वैसे ही भोग प्राप्त करते हैं और उसी से भवसागर में भटकते रहते हैं | अगर हम संकल्प-संस्कार-इच्छा रुपी इस चित्त-वृत्ति का समाधान कर लें, तो हमें भवसागर से ही छुटकारा मिल जाए, सुख-दुःख रुपी सभी संवेदनाएं मिट जाएं और जन्म-मरण का चक्कर ही नष्ट हो जाए | अतः इस चित्त-वृत्ति को ही धर्म की गाँठ कहा गया है और इस चित्त-वृत्ति के निरोध को ही 'योग' की संज्ञा दी गयी है |
[यहाँ जो मैंने धर्म-चक्र का वर्णन किया है, वह कई पूर्व विद्वानों के वर्णन से थोड़ा सा अलग जान पड़ता है; परन्तु मुझे इस प्रकार का वर्णन ही ज्यादा सटीक और सिस्टेमेटिक/चरणबद्ध जान पड़ा है | इस कारण बौद्धवादी, मायावादी और शून्यवादी विद्वान् कृपया त्योरियाँ ना चढ़ाएं | खैर -]
धर्म इस ब्रह्माण्ड की महायात्रा में हमारे "राह-खर्ची" जैसा है | जैसा हमारा धर्म होता है, उसी अनुसार हम भवसागर की यात्रा करते हैं | जिधर का टिकट लिया है, उधर के ट्रेन में ही बैठोगे भाई, और जितना खर्च कर के जिस तरह का टिकट लिया है, उतने ही ऐश-आराम से यात्रा करोगे |
अब हम धर्म के एक अन्य लक्षण की आगे चर्चा करेंगे, तब तक के लिए जय श्री कृष्ण |