रविवार, 21 जुलाई 2013

धर्म {भाग -२}


२.
हमने पहले के ब्लॉगों में यह तो पढ़ा ही है कि चित्त की मूल वृत्ति "संकल्प, संस्कार और कामना" है | अर्थात, मन संकल्प करता है, बुद्धि संस्कार बनाती है और अहंकार कामना या इच्छा करता है | और फिर जब कोई एक इच्छा कर ली जाती है, तो फिर जीव उसी इच्छा की ही तरफ दौड़ने लग जाता है | यह जो चित्त की वृत्ति है, वही जीव की भी प्रवृत्ति होती है और फिर उसे उसी के अनुसार अगली धार्मिक परिस्थिति प्राप्त होती है | वह उसी अपने ख़ास प्रवृत्ति के अनुसार ही कर्म करता है और उसी प्रकार उसकी आगे गति होती है | बस यही धर्म के गति का मूल रहस्य है |
कुछ लोगों ने धर्म का एक बारह अरों वाले चक्र के रूप में वर्णन किया है (भगवान बुद्ध ने भी ऐसा ही कहा है), जो अज्ञान/अविद्या से आरम्भ होता है और जन्म-मरण के अनवरत चक्र तक पहुँचता है | आइये, इसे विस्तार से समझने का प्रयत्न करते हैं |
जब प्रारंभ में इस संसार की सृष्टि हुई, तो पुरुष ने प्रकृति में क्षोभ किया | इसके फलस्वरूप सर्वप्रथम पुरुष अपने स्वाभाविक सत्य स्वरुप को भूल गया | यह जो अपने सत्य स्वरुप से विलगाव और प्रकृति से लगाव हुआ, उसे ही अज्ञान कहा जाता है | प्रकृति का सबसे मौलिक और आरंभिक स्वरुप यही है, और इसी कारण प्रकृति को अविद्या कहा गया है | असल में यह प्राकृत अज्ञान कोई सचमुच का अज्ञान नहीं है, बल्कि सिर्फ अपने सहज ज्ञान और अपने सत्य स्वरुप का 'भूल जाना' मात्र है | यानि पुरुष प्रकृति के सामने आया और अपने ज्ञान को भूल गया | यह अविद्या/अज्ञान हुआ और यह धर्म-चक्र का सबसे पहला चरण है |
इसके बाद पुरुष अपने स्वाभाविक 'आत्मा' ऐसे स्वरुप को भूल कर 'जीव' ऐसे स्वरुप को जानता है | यानि 'मैं निर्मल, नित्यमुक्त, सच्चिदानन्दमय आत्मा हूँ' इस बात को भूक कर अपने को प्रकृति में घिरा पाता है | इस स्वरुप में वह अपने को अपने मौलिक मित्र श्री भगवान से बिछड़ा हुआ पाता है, और इसकारण अपने स्वयं के अस्तित्व को ही सत्य मान बैठता है | यह अवस्था ही अहंकार इस नाम से जानी जाती है | अर्थात पुरुष अपने स्वाभाविक स्थिति को भूल कर प्राकृत स्थिति, जिसे "महत्तत्व" कहा जाता है, को अपनी असली स्थिति मान बैठता है | यह अहंकार ही धर्म का दूसरा चरण है |
इसके बाद जीव संस्कार और संकल्प रुपी जाल में फंसता है | प्रकृति में जो अनगिनत विषय जीव के चारों और मंडरा रहे होते हैं, उनसे सम्बंधित संकल्प-विकल्प उसे प्राप्त होता है, और कई जन्मों के इकट्ठे हुए संकल्पों के कारण उसका संस्कार बनता जाता है | यह संकल्प-संस्कार ही धर्म का तीसरा चरण है, और इसी के साथ जीव के चित्त का पूर्ण निर्माण हो जाता है, जिसके तीन भाग हैं - (१) अहंकार, (२) महत्तत्व/बुद्धि और (३) मन/संकल्प |
इसके आगे जीव को एक शरीर प्राप्त होता है | वह जिस जिस प्रकार के संकल्प,संस्कार इत्यादि से जैसी जैसी अपनी वृत्ति बनाता रहता है, उसे वैसा वैसा शरीर प्राप्त होता रहता है | उस शरीर में उस उस प्रकार के इन्द्रिय लगे रहते हैं, जो तत्संबंधी विषयों को भोग सकें और उस उस प्रकार का लोक, देश,काल, नाम, रूप उसे प्राप्त होता रहता है | यह शरीर ही धर्म का चौथा चरण है, और उसके इन्द्रिय ही पांचवें चरण हैं | इन्द्रिय ही जीव को शरीर द्वारा संसार के विषयों से जोड़ते हैं |
असल में इन्द्रिय अपने अपने प्रकार के विषयों के प्रति आकर्षित होते हैं, और उन उन विषयों से उनका संपर्क होता है | इस बात की भी हम पहले चर्चा कर चुके हैं | जैसे आँख अपने विषय 'रूप' से ही संपर्क करता है , वह जिह्वा के विषय 'रस' से संपर्क नहीं करता ; भले ही 'रस' नामक विषय भी आँख के सामने आए, परन्तु वह विषय के 'रस' पर नहीं, बल्कि 'रूप' पर ही आकृष्ट होगा और उसी से जुड़ेगा | यह संपर्क ही धर्म का छठा चरण है |
इसके बाद, इन्द्रियों के अपने अपने विषयों से जुड़ने के कारण जीव को तत्संबंधी संवेदनाएं मिलती हैं | अर्थात अनुकूल विषय मिलने पर सुख और प्रतिकूल विषय मिलने पर दुःख मिलता है | और कभी कभी मिश्रित संवेदना भी मिलती है | अर्थात इन्द्रियों के माध्यम से जीव को भौतिक विषयों का ज्ञान प्राप्त होता है | इस भौतिक ज्ञान को, जिसका नाम संवेदना है, धर्म का सातवाँ चरण कहा गया है |
अब यह संवेदना रुपी ज्ञान ही है, जो हमारे चित्त को किसी ख़ास संकल्प को संस्कारित करने और फिर उस संस्कार को इच्छा में बदलने को प्रेरित करता है | यानी हमें जिस विषय में अत्यधिक सुख मिला होता है, हम उसके प्रति ज्यादा आकर्षित होते हैं, और जिस विषय में अत्यधिक दुःख मिला होता है, उसके प्रति ज्यादा विकर्षित होते हैं | नतीजा यह होता है कि जिस जिस विषय में ज्यादा सुख/दुःख मिला होता है, उसी का ज्यादा चिंतन करते है कि यह कहीं से मिल जाए या फिर कहीं यह हमें ना मिल जाए | फलस्वरूप उसी विषय का ज्यादा संकल्प-विकल्प होता है और उस से सम्बंधित संस्कार बलवान होते जाते हैं और अंततः वही हमारी कामना बन जाती है और फिर हम उस कामना को पाने के लिए उद्यत हो जाते हैं | यही 'कामना' का मूल रहस्य है और यह कामना ही धर्म का आठवाँ चरण है |
नतीजा यह होता है कि हम बार बार विषय भोग प्राप्त करते रहते हैं, और हम बार बार उनकी कामना करते रहते हैं | जितना विषय मिलता है, उतना ही कामना बलवती होती है | वेदों में यह प्रवृत्ति आसक्ति अथवा अनुराग के नाम से वर्णित है और विषयों के प्रति इसी अनुराग को धर्म का नौवां चरण कहा गया है |
इन नौ चरणों के कारण जीव की जो परिस्थिति होती है, वही जीव की सम्पूर्ण प्रवृत्ति अथवा भाव के नाम से प्रसिद्द है | हम जीवन भर जिस प्रवृत्ति या भाव को धारण करते हैं, मृत्यु के समय भी उसी में से कोई एक भाव जागृत होता है और नतीजतन हम अपने अगले जन्म को अपने इसी जन्मे में तय कर लेते हैं | यह भाव ही धर्म का दसवां चरण है और श्री गीता जी में इसी भाव/प्रवृत्ति की महत्ता का वर्णन करते हुए श्री भगवान् कहते हैं -
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरं |
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः || [अध्याय ८, श्लोक ६]
- हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! शरीर त्यागते समय जीव जिस जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस उस भाव को निश्चित रूप में प्राप्त होता है |
यानी जीव जिस भी भाव में अपने इस जीवन का अंत करता है, उसे के अनुसार उसे अपना अगला जन्म प्राप्त होता है | असल में मृत्यु के समय जीव केवल स्थूल देह का ही परित्याग करता है | मन-बुद्धि-अहंकार रुपी चित्त सदा उसके साथ चलता है | नतीजतन वह अपनी बलवान इच्छाओं, संचित संस्कारों और मृत्यु के समय उत्पन्न संकल्पों को साथ लेकर अपने अगले जीवन में प्रवेश करता है | फलस्वरूप अगले जन्म में उसे वैसी ही परिस्थितियाँ और वैसा ही देह-इन्द्रिय-समूह प्राप्त होता है जो उसके भाव/प्रवृत्ति के अनुकूल हों | यही हमारे पुनर्जन्मों का रहस्य है और यह बार बार जन्म लेने की आदत, जिसे जाति कहा जाता है, यह आदत ही धर्म का ग्यारहवाँ चरण है |
अंततः जीव अपने इच्छा, अपने भाव, अपने चित्त और अपने जन्म-इन्द्रिय-शरीर इत्यादि के ही द्वारा बार बार अनुराग और भोगों में पड़ता रहता है | यही जन्म-मृत्यु के अनंत चक्र का रहस्य है और यही संसार के सुख-दुःख का कारण है | यह जन्म-मृत्यु-सुख-दुःख रुपी भवसागर ही धर्म का बारहवां और अंतिम चरण है |  इसप्रकार ही धर्म आगे आगे गति करता रहता है और साथ ही साथ जीव भी गति करता रहता है और भवसागर में भटकता रहता है |
इन बारह चरणों में से तीन, संस्कार, कामना और भाव अत्यंत महत्वपूर्ण हैं | क्योंकि यही हमारे चित्त की मूल वृत्ति है, और यही हमारे पूरे जीवन और आगे भावी जीवन को भी प्रभावित करते हैं | हमारी जैसी चित्त-वृत्ति होती है वैसा ही हमारा धर्म होता है, वैसे ही हम कर्म करते हैं, वैसे ही भोग प्राप्त करते हैं और उसी से भवसागर में भटकते रहते हैं | अगर हम संकल्प-संस्कार-इच्छा रुपी इस चित्त-वृत्ति का समाधान कर लें, तो हमें भवसागर से ही छुटकारा मिल जाए, सुख-दुःख रुपी सभी संवेदनाएं मिट जाएं और जन्म-मरण का चक्कर ही नष्ट हो जाए | अतः इस चित्त-वृत्ति को ही धर्म की गाँठ कहा गया है और इस चित्त-वृत्ति के निरोध को ही 'योग' की संज्ञा दी गयी है |
[यहाँ जो मैंने धर्म-चक्र का वर्णन किया है, वह कई पूर्व विद्वानों के वर्णन से थोड़ा सा अलग जान पड़ता है; परन्तु मुझे इस प्रकार का वर्णन ही ज्यादा सटीक और सिस्टेमेटिक/चरणबद्ध जान पड़ा है | इस कारण बौद्धवादी, मायावादी और शून्यवादी विद्वान् कृपया त्योरियाँ ना चढ़ाएं | खैर -]
धर्म इस ब्रह्माण्ड की महायात्रा में हमारे "राह-खर्ची" जैसा है | जैसा हमारा धर्म होता है, उसी अनुसार हम भवसागर की यात्रा करते हैं | जिधर का टिकट लिया है, उधर के ट्रेन में ही बैठोगे भाई, और जितना खर्च कर के जिस तरह का टिकट लिया है, उतने ही ऐश-आराम से यात्रा करोगे |
अब हम धर्म के एक अन्य लक्षण की आगे चर्चा करेंगे, तब तक के लिए जय श्री कृष्ण |

शनिवार, 13 जुलाई 2013

धर्म {भाग-1}

श्रीमन्नारायणाय नमः .
मित्रों! बहुत अरसे बाद कुछ लिखने का समय मिला है, और गुरुदेव की कृपा से लिखने लायक विषय भी प्राप्त हुए हैं | एक बड़ा अध्याय लिख रहा हूँ, विषय है 'धर्म' | यद्यपि मैं हमेशा की तरह अपने क्षमता और योग्यता से अधिक बड़ी बातों पर लिख रहा हूँ, किन्तु फिर भी प्रयास करूँगा कि मन जो बातें आती हैं, और ईश्वर के आशीर्वाद से और गुरुजनों की कृपा से जो कुछ भी सोच-समझ पाया हूँ, उसको आप सब के साथ ईमानदारी से पूरा पूरा बांटने का प्रयास करूँ | अगर कोई बात अच्छी लगे तो कुछ नहीं, बस इतना चाहूँगा कि आप भी उस बात पर ध्यान दें | अगर कोई बात बुरी लगे, या पसंद ना आए तो कृपया मुझे बताइये, ताकि मैं इस चीज को और अच्छी तरह समझ सकूँ | क्योंकि मैं कोई ग्रन्थ नहीं लिख रहा, बस अपनी समझ बाँट रहा हूँ....
अथ -
========================================================================
.

इस अध्याय में हमलोग पहले 'धर्म' शब्द के अर्थ पर ध्यान देंगे | उसके बाद आगे 'धर्म' के विस्तृत स्वरुप और उसके महत्त्व की चर्चा करने का प्रयास किया जाएगा |
सामान्य जन धर्म से सांप्रदायिक समूह और पूजन-पद्धति से सम्बंधित सामाजिक नियमों का अर्थ लेते हैं | इसमें कुछ खास गलत भी नहीं है | लोग अपने अपने देश-काल से प्रभावित होते हैं | आजकल संसार में जिस प्रकार की भाषाओँ का बोलबाला है, उनमे संस्कृत भाषा के 'धर्म' शब्द का सार्थक पर्यायवाची मिलना मुश्किल है | प्रचलित लोकप्रिय स्वरुप में भरतखंड में 'धर्म' शब्द हिंदी, बांग्ला, तमिल, तेलुगु, मराठी इत्यादि भाषाओँ में प्रयुक्त होता है; परन्तु इन भाषाओँ में भी आम जनता 'धर्म' शब्द का वही अर्थ लेती है जो ऊपर लिखा गया | भरतखंड से बाहर जो भाषाएँ ज्यादा प्रचलित हैं, जैसे अंग्रेजी, फ्रेंच, मंदारिन, अरबी, फारसी इत्यादि में भी 'धर्म' शब्द का सटीक पर्यायवाची मिलना कठिन है |
इसीकारण इन भाषाओँ का प्रयोग कर के 'धर्म' शब्द का सही अर्थ लगाना व्यर्थ है | वैसे भी जो शब्द जिस भाषा का हो, उसे उसी भाषा द्वारा परिभाषित करना चाहिए, अन्यथा अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है | 'धर्म' मूलतः संस्कृत भाषा का शब्द है इसलिए हमें संस्कृत भाषा के 'धर्म' शब्द का ही अर्थ लेना चाहिए |
संस्कृत भाषा में 'धर्म' शब्द 'धृ' धातु से बना है; और इसी से बने अन्य शब्दों जैसे धृति, धरित्री, धारणा इत्यादि से सम्बन्ध रखता है | इस तरह संस्कृत में 'धर्म' शब्द का अर्थ धारण करने वाला और गति प्रदान करने वाला लिया गया है | इसका किसी आध्यात्मिक संप्रदाय, पूजन पद्धति या सामजिक नियम और समूह से कोई लेना देना नहीं है | संस्कृत में संप्रदाय को संप्रदाय ही कहा जाता है, पूजन पद्धतियों को आगम, जन-समूह को वर्ण-आश्रम, सामाजिक नियमों को नीति और प्राकृतिक नियमों को ऋत कहा जाता है | और संस्कृत भाषा की एक मौलिक विशेषता है कि उसमे एकदम एक तरह के अर्थ में दो शब्द प्रयुक्त नहीं होते | उदहारण के लिए जो आग जलाने के काम आती है उसे 'दहन' कहते हैं और जो भोजन पकाने के काम आती है उसे 'पावक' कहते हैं | दहन के अर्थ में पावक और पावक के अर्थ में दहन का प्रयोग नहीं हो सकता है | देवताओं को भोजन प्रदान करने वाले को 'अग्नि' और ज्ञान/प्रकाश प्रदान करने वाले को 'जातवेदस' कहा जाता है | अग्नि के अर्थ में जातवेदस और जातवेदस के अर्थ में अग्नि का प्रयोग नहीं हो सकता है | इस उदहारण से स्पष्ट है कि 'धर्म' शब्द का अर्थ हम संप्रदाय, आगम, वर्ण, आश्रम, नीति या ऋत; किसी से नहीं ले सकते | यद्यपि धर्म इन सभी वस्तुओं को प्रभावित करता है, फिर भी इन सब का अर्थ-मात्र धर्म नहीं है | धर्म इन सब से बृहत् और विस्तृत है |
धर्म के दो लक्षण हैं - 'धारण' करना और 'गति' प्रदान करना | इसके आलावा धर्म का एक और लक्षण है जिसकी चर्चा बाद में होगी | पहले इन दोनों वस्तुओं पर गौर करते हैं | धारण करने का अर्थ है स्थिरता, अच्युतता और आधार प्रदान करना | 'सांख्य' के अनुसार धारण करने के लिए 'तमस' गुण की आवश्यकता होती है | क्योंकि तमस में स्वभावतः एक जड़ता और स्थिरता होती है | इस संसार में जो कुछ भी स्थिर, स्थित और जड़ है वो सब तमस के कारण है | अगर तमस न हो, तो सृष्टि में स्थिरता नहीं हो सकती |
धर्म जीव/वस्तु को स्थिरता प्रदान करता है | धर्म ही पत्थर को भारी, रूई को हल्का और आकाश को तटस्थ बनाता है | धर्म ही मनुष्य को मनुष्य, देवता को देवता, जन्तु को जन्तु, पक्षी को पक्षी और पादप को पादप बनाता है | धर्म ही सूक्ष्म को सूक्ष्म, स्थूल को स्थूल, जड़ को जड़ और चेतन को चेतन बनाता है | यही नहीं, अगर आप इस बात का विश्वास करें तो धर्म ही जीव को जीव, जगत को जगत, ब्रह्म को ब्रह्म, प्रकृति को प्रकृति और ईश्वर को ईश्वर बनाता है (या फिर यूँ कहिये कि बनाए रखता है) |
[ईश्वर धर्म के दायरे में आता है या नहीं, इसपर बाद में बहस करेंगे, पहले जरा यह देखें कि धर्म धारण किस प्रकार करता है]
असल में हर वस्तु की एक विशेष धार्मिक परिस्थिति होती है | उसी के कारण वह एक खास देश-काल और परिस्थति में स्थापित होता है | जिसकी जैसी धार्मिक स्थिति होती है, वह उसी प्रकार के संप्रदाय, समाज, देश, परिवार, वर्ण, आश्रम इत्यादि में होता है | मनुष्य की भी यही स्थिति है, क्योंकि जीव मात्र की यही स्थिति है | हर मनुष्य अपनी अपनी धार्मिक परिस्थिति के ही कारण हिन्दू, मुस्लिम, इसाई, बौद्ध, वैष्णव, शैव, स्मार्त, ब्राह्मण, क्षत्रिय, ब्रह्मचारी, गृहस्थ, आस्तिक, नास्तिक इत्यादि होता है | इन इन प्रकार के संप्रदाय, समुदाय, समाज इत्यादि के द्वारा धारण किये जाने के लिए मनुष्य का अपना अपना धर्म ही जिम्मेदार है |
धर्म हमें धारण करने के लिए हमारे ही कर्मों का इस्तेमाल करता है | हमारे कर्म जिस प्रकार के होते हैं, धर्म हमें आगे उसी प्रकार की परिस्थितियाँ देता रहता है | पापमय कर्मों के कारण हम पापमय परिस्थिति को ही प्राप्त करते हैं और पुण्यमय कर्मों से हमें पुण्यमय स्थिति मिलती है | [यद्यपि कर्मों का पापमय अथवा पुण्यमय होना भी एक प्रकार का क्लिष्ट विषय है, समझने के लिए; मगर एक सरल वाक्य में कहें तो परपीडन ही पाप है और परोपकार ही पुण्य है] अपने अपने कर्म-समुच्चय के कारण ही हम लोग अपना अपना धर्म और अपनी अपनी स्थिति पाते हैं | इस बात से कृपया यह मत समझिये कि धर्म का अर्थ कर्म से है | कर्म धर्म का एक भाग है, परन्तु सम्पूर्ण धर्म इससे बृहत् और विस्तृत है |
इस बात को और भी अधिक स्पष्ट करने के लिए हम धर्म के दुसरे लक्षण पर ध्यान देते हैं | दुसरे लक्षण को समझने से पहला लक्षण और सरलता से समझा जा सकता है |
धर्म का दूसरा लक्षण है 'गति' | गति का सीधा सपाटा मतलब वही है - एक स्थान से दुसरे स्थान को विस्थापित होना, खासकर एक विशेष नियम के तहत विस्थापित होना | धर्म की गति सचमुच एक विशेष नियम (ऋत) से कार्य करती है | धर्म ही हमें एक परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में लेकर जाता है | जैसे ही हमारे कर्म में बदलाव आता है, वैसे हमारा धर्म आगे बढ़ता है और फिर वह हमारी परिस्थिति बदल देता है | फिर उस परिस्थिति से प्रभावित होकर हम उस परिस्थिति के अनुकूल या प्रतिकूल नए कर्म करते हैं, और फिर से धर्म आगे गति करता है और फिर हमारी परिस्थिति बदल जाती है | इसे समझने के लिए एक उदहारण लेते हैं | जैसे एक जीव है, जो पापमय व्यवहार करता है | फलस्वरूप उसे नारकीय जीवन की प्राप्ति होती है | परन्तु यदि वह आगे चलकर पापमय कर्म छोड़कर पुण्यमय कर्म शुरू कर देता है, तो उसकी परिस्थिति बदलने लगती है; और फिर वह स्वार्गिक अथवा अन्य प्रकार के बेहतर जीवन को पा सकता है |
सांख्य दर्शन के अनुसार गति के लिए 'राजस' गुण की आवश्यकता होती है | 'राजस' गुण के कारण ही प्रत्येक वस्तु में गति होती है | इसकारण धर्म भी राजस गुण के प्रयोग से हमें हमारे कर्मों के फलस्वरूप नए नए स्थितियों में ले जाता है, और फिर जब तक हम नए फलदायी कर्म न कर लें, तबतक तामस गुण के द्वारा हमें उस स्थिति में धारण किये रहता है |
अब हमें यह जानना चाहिए कि आखिर धर्म गति किस प्रकार करता है | धर्म के गति का एक नियम होता है | वेदों में इसे 'ऋत' का नाम दिया गया है, और भगवान बुद्ध ने इसे ही 'धर्म-चक्र' कहा है | वेदों का ऋत शब्द धर्म के अलावा भी अन्य किसी भी शाश्वत प्राकृतिक और आध्यात्मिक नियम के लिए प्रयुक्त होता है | परन्तु बुद्ध का 'धर्म-चक्र' शब्द विशेषतः धर्म के गति के विषय में ही है; इसलिए हम भी इसे 'चक्र' का ही नाम देंगे | वैसे भी आगे आप देखेंगे कि धर्म सचमुच एक गोल-चक्कर की तरह गति करता है | इसलिए इसकी गति को 'धर्म-चक्र' कहना विशेष गलत नहीं है | परन्तु जब हम धर्म के तीसरे लक्षण की चर्चा करेंगे तो इसकी चक्रीय गति शिथिल होती नजर आएगी |
[मेरा मकसद धर्म की बौद्ध परिभाषा को स्थापित करना नहीं है | वैसे भी बौद्ध दर्शन चूँकि भरतखंड में ही उत्त्पन्न हुआ है, इसलिए उसका विशेष वैदिक सिद्धांतों से प्रभावित होना कुछ बुरा नहीं है | मेरा मुख्य उद्देश्य धर्म की उस मौलिक भारतीय विवेचना को समझना है, जो काल और भाषा के प्रभाव से मारी गयी है, और जिस कारण सामान्य जन धर्म का गलत अर्थ लगा कर फंसे रहते हैं |]
=======================================================================
.
अभी आगे और भी लिखने वाला हूँ, क्योंकि बहुत कुछ बाकी है जो बुद्धि में चल रहा है, बस शब्द और वाक्य का रूप नहीं धर पा रहा है | जैसे जैसे श्री हरी चाहेंगे, वैसे वैसे प्रकट करता रहूँगा | आज के लिए -
हरी ॐ तत्सत् .

शुक्रवार, 18 जून 2010

काम

[इस बार का ब्लॉग स्पेशल रूप से पुरुषोत्तम के लिए है| पुरुषोत्तम मेरे कॉलेज का दोस्त रहा है | आज भी (जब कि हम दोनों काफी दूर रहते हैं, एक दूसरे से) वो मेरे लिए सबसे स्पेशल दोस्त है | यजमान, ये तेरे लिए- ]


कार्य-कारण  

कई दिनों से सोच रहा था | फिर सोचा कि जो सोचा है, उसे अपने मित्रों से बाँटना भी चाहिए | पता नहीं कितने लोग मुझ से इत्तेफाक रखेंगे, मगर इतना तो भरोसा है ही सभी अपने मित्र हैं, अतः हमारी बात और सोच को समझेंगे जरूर | चाहे उनकी सोच हमारी सोच से मेल खाए, या नहीं |
अस्तु!
बहुत दिनों से सोच रहा था, कि- " दुनिया बनाने वाले! क्या तेरे मन में समाई ? तुने कहे को दुनिया बनाई?"

तुलसीदासजी से पूछा तो उन्होंने कहा- 'कर्म प्रधान विश्व करी राखा| जो जस करही, सो तस फल चाखा ||'
मगर मैंने कहा कि गोस्वामीजी, कर्म तो इस विश्व के अंदर ही है; वैकुण्ठ में तो कर्म और फल का कोई चक्कर ही नहीं है| वहाँ तो भगवान कि दिव्य सेवा और उस आनन्द का राज है | फिर इस विश्व का कारण कर्म कैसे हो सकता है?
गोस्वामीजी ने बड़े ही प्यार से उत्तर दिया- "होई सोई जो राम रची राखा | को करी तर्क बढ़ावहि शाखा ||"

मैं हैरान परेशान हो गया|
'गोस्वामीजी, ये तो किस्मत पर भरोसा करने जैसा हो गया | और भगवान के सच्चे भक्त तो किस्मत की बातें नहीं करते |'
गोस्वामीजी ने कहा-"हरि इच्छा भावी प्रबल-"
फिर कहा-'बेटा! मेरी बातें शायद तुम्हे समझ में न आए | जाओ, सीधे भगवान से ही पूछ लो | वो भी यही कहेंगे | हाँ! तुम्हारा यह कहना सही है कि कर्म या किस्मत इस संसार का कारण नहीं हो सकता, परंतु हरि की इच्छा इस जगत का कारण है| यह इच्छा कर्म या किस्मत की गलियों में नहीं भटकती, वरन इनसे अलग ले जाती है | जाओ- सीधे भगवान से ही पूछ लो-'

और मैं भगवद्गीता के पास आया-"गीता मैया! गोस्वामीजी ने जो कहा उसका मतलब मैं नहीं समझा| ठीक है कि संसार का उपादान कारण ( वह मैटेरिअल जिससे दुनिया बनी है-) प्रकृति है -"सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः"(३/५)|
जैसे अगर कोई कुम्हार घड़ा बनाता है तो उस घड़े का निमित्त कारण तो वह कुम्हार खुद होता है, उपादान कारण मिट्टी होती है | तो दुनिया का उपादान कारण तो त्रिगुणात्मक प्रकृति है | निमित्त कारण हैं स्वयं श्री भगवान | "सर्ववास्थं करणं ईशो अहं बीजप्रदः पिता" (१४/४)|

मगर एक सवाल और है गीता मैया!"
गीता मैया ने पूछा- "क्या सवाल है? पूछो| भगवान ने मुझे इसीलिए प्रकट किया है कि मैं किसी जीव को अनुत्तरित न रहने दूँ| पूछो! श्रीभगवान प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देंगे |"
मैंने कहा-"लोग सामान्यतया ये मानते हैं कि किसी भी कार्य के दो ही कारण होते हैं- 'उपादान' और 'निमित्त' | मगर दो और कारण भी तो होते हैं- ' स्वरुप' कारण और 'उद्देश्य' कारण |
मुझे इन्ही दो कारणों के बारे में जानना है | तभी कार्य-कारण का असल निर्णय हो पायेगा |
गीता मैया ने कहा- "बेटा! तो सुन-

पांच प्रकार के कारण-
तुमने जो कहा कि कारण चार हैं, यह बात अधूरी है! यह बात मात्र बुद्धिवाद की उपज है! बुद्धि की एक सीमा है- महत-तत्व तक! बुद्धि महत-तत्व के आगे नहीं जान सकती! मगर उसके आगे प्रकृति है, और उसके भी आगे हमारा असली स्वरुप, असली धाम और असली मित्र रहता है| अतः वही सुनो जो हमारे मित्र ने कहा था कि असल में किसी भी कार्य के पांच कारण होते हैं-
१. निमित्त कारण- वह जो कार्य करता है | कर्ता वही कहलाता है | कार्य या अन्य तीनों कारण कर्ता नहीं कहे जा सकते| कर्ता तो मात्र निमित्त कारण ही होता है |जैसे मूर्तिकार, जो मूर्ति बनाता है| या फिर कुम्हार, जो घड़ा बनाता है | भगवान ने भी इसे कर्ता ही कहा है |(१८/१४)
२. उपादान कारण- वह कच्चा माल और औजार, जिसके द्वारा कार्य संपन्न किया और बनाया जाता है | यही कार्य की वस्तु और तंत्र है| जैसे सोना या धातु, जिससे मूर्तिकार मूर्ति बनाता है, और उसके छेनी-हथौड़ी आदि औजार| या फिर मिट्टी और चाक, जो घड़े के तंत्र और वस्तु हैं| भगवान ने इसे ही करण की संज्ञा दी है|(१८/१४)
३. स्वरुप कारण- जब भी कोई मूर्तिकार कोई मूर्ति बनाता है, तब उसके मन में पहले से ही उस मूर्ति की एक छवि वर्तमान रहती है| वह उसी छवि के नक़ल में अपनी सोने आदि धातु की मूर्ति बनाता है| इसी तरह जब कुम्हार घड़ा बनाता है, तब उसके भी मन में एक पूर्व-कल्पित घड़ा रहता है; गोल, अंडाकार, या सुराही!!! वह इसी कल्पना के आधार पर घड़ा बनाता है| इसीलिए, मूर्ति और घड़े का आकार उनके निमित्त कारण मूर्तिकार और कुम्हार के मन के संकल्पना, या फिर कहें कि उनकी इच्छा पर निर्भर कर्ता है | यही इच्छा या प्रत्ययात्मक संकल्पना ही इन दोनों का स्वरुप कारण है | श्री हरि ने इसे ही दैव कहा है |(१८/१४)
४.  उद्देश्य कारण- मूर्तिकार मूर्ति क्यों बनाता है? या फिर कुम्हार घड़ा क्यों बनाता है? दूसरे शब्दों में, क्या कारण है कि मूर्ति और घड़े का निर्माण हुआ? मूर्ति सजावट, सुंदरता, प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य या पूजन के लिए बनाई जा सकती है| कुम्हार के बर्तनों और घडो का निर्माण पानी रखने, अन्न सहेजने या भोजन पकाने आदि के लिए हो सकता है| कार्यों का यह लक्ष्य है उनका उद्देश्य कारण है | भगवान इसे ही चेष्टा कहते हैं |(१८/१४)
५. आधार कारण- मूर्तिकार और कुम्हार आदि कर्ता भूमि आदि आधार पर ही अपने कार्य संपन्न करते हैं| वे निर्वात में तो कुछ भी नहीं कर सकते! फिर उनके कार्य को सहयोग देने के लिए देश-काल और परिस्थितियां भी होनी चाहिए| ये सब मिलकर कार्य का मूल-आधार तैयार करती हैं| यही कार्य का आधार कारण है| प्रभु इसे ही अधिष्ठान का नाम देते हैं|(१८/१४)

संसार के कारण-
 संसार भी तो महा विरत- कार्य ही है| फिर इसका कारण क्या है?
जाहिर सी बात है, इसके भी पांच कारण हैं; क्योंकि हर कार्य के पांच कारण होते हैं, और कार्य-कारण ही एकमात्र ऐसा नियम है, जिसका कोई अपवाद नहीं होता |
१. संसार का निमित्त कारण- भगवान (नास्तिकों के लिए विज्ञानं (consciousness))
२. संसार का उपादान कारण- प्रकृति (नास्तिकों के लिए पदार्थ (matter))
[अब यहाँ से नास्तिकों की परेशानी शुरू होगी- क्योंकि ये तीनों कारण उनके लिए नए हैं| किसी ने क्या खूब कहा है -'जरूरी नहीं है कि हर ज्ञान आपको दे ही दिया जाये!?! कुछ छुपा के भी रखा जाता है; क्योंकि अगर आप सब जान जाएँगे, तो फिर छुपाने वाला क्या करेगा?!?']
३. संसार का स्वरुप कारण- इसके लिए मैं तुम्हे एक सीधा सा सूत्र देती हूँ, जो सूत्र श्री भगवान ने अर्जुन को दिया था|
"यथेच्छसि तथा कुरु" (१८/६३)"


मैं फेर में पड़ा| गीता मैया यह तो श्रीकृष्ण ने कहा कि अर्जुन मैंने तुझे सब कुछ बतला दिया, अब जो तेरी इच्छा हो, सो कर |
इसके उत्तर में जो मिला वो मैं आगे लिखूंगा; अभी संसार के चौथे कारण के बारे में गीता जी से सुनते हैं-

४. संसार का उद्देश्य कारण - गीताजी ने आगे कहा- "और इस संसार का एक उद्देश्य भी है! संसार अकारण ही नहीं है! आस्तिक इसे मोक्ष के उद्देश्य से मानते हैं, नास्तिक भोग के उद्देश्य से| मगर यह संसार सोद्देश्य है, निरुद्देश्य नहीं| कुछ पागल होते हैं, जो इसे यंत्रवत तथा उद्देश्यहीन मानते हैं, मगर उनकी मैं बात नहीं करती| मैं तो वही कहूँगी, जो भगवान ने अर्जुन से कहा था- "शरणं-"(कई अध्यायों के, कई श्लोकों में)|

मैं थोडा समझा थोडा भूला | गीता मैया, ये कैसे? संसार का उद्देश्य तो मोक्ष नजर आता है! शरण-???
गीता जी ने जो समझाया वह आगे लिखूंगा| अभी-

५. संसार का आधार कारण- गीता मैया ने कहा- "तद्धाम परमं मम|"(८/२१)

[अब यहाँ से मैं अपनी टूटी फूटी भाषा में संसार के स्वरुप कारण, उद्देश्य कारण और आधार कारण कि चर्चा करूँगा | यद्यपि समय की कमी है, तथापि और इसी कारण आज सिर्फ स्वरुप कारण कि चर्चा कर पाउँगा |]
{पुरुषोत्तम - " साले पंडित! मरवाएगा क्या? क्या बकवास कर रहा है? वो  मुख्य बात कहा है जिसके लिए मैं तेरा इतना लंबा भाषण पढ़ रहा हूँ?"
रंजन-" यहाँ से शुरू होता है यार| Here comes the Sun. And I say-'it's alright.'" }

स्वरुप कारण /दैव 
तो, संसार का स्वरुप कारण है इच्छा|
क्या आपलोगों ने वेदों से ये नहीं सुना- "स इच्छत " |
ये दुनिया भगवान की इच्छा से बनी है| अलग अलग लोग, अलग अलग तरह से इस इच्छा की व्याख्या करते हैं| कुछ कहते हैं कि उसने इच्छा की कि एक से अनेक हो जाए | कुछ कहते हैं कि उसने इच्छा की कि प्रकाश हो जाए | कुछ कहते हैं कि उसने इच्छा कि उसको जानने वाले हों |
असल में इच्छा बड़ी ही शक्तिशाली वस्तु है| लोग अपने अपने स्थिति के लिए कर्म और भाग्य को दोष देते फिरते हैं, मगर असल दोष तो उनकी इच्छा का है| उनकी चाहत ही यही थी, इसलिए वे ऐसे हैं, जैसे हैं |
" जबसे मैंने तुम्हे पाने की चाहत की है, तबसे पूरी कायनात ने हमें मिलाने की साजिश की है |"
 सुनाने में बड़ा अजीब सा लगता है, मगर है सच |
हमारा चित्त तीन परतों का बना है, और ये तीन परतें हमारे असली स्वरुप को घेरे रहती हैं| १. मन, २. बुद्धि और ३. अहंकार | (some people try to describe this as- conscious, sub-conscious and un-conscious parts)
चित्त के बाहरी परत, मन में तरह तरह के विचार उठते-गिरते रहते हैं| मन का काम ही यही है| इन विचारों को संकल्प और विकल्प कहते हैं | संकल्प माने नया विचार और विकल्प माने उस विचार का प्रत्युत्तर | ये बार बार आते-जाते रहते हैं| जीवन का कोई ऐसा क्षण नहीं जाता, जब मन में संकल्प-विकल्प न उठे| (सिवाय समाधिस्थ योगी के) ये कुछ ऐसा ही है, जैसे हम किसी दीवार पर कोई कील रखें और फिर हटा ले| फिर रखें, फिर हटा ले| फिर रखें, और फिर हटा ले| ये जो विचारों का आना और जाना और फिर आना और फिर जाना है; यही मन का असल स्वरुप है| 
 मगर इन्ही संकल्पों में से कुछ संकल्प बार बार हमारे मन में आते हैं | क्योंकि विकल्पों से उनका समाधान नहीं हो पता | तब मन अपने higher authority,  बुद्धि को वह संकल्प refer कर डालती है | यहाँ से वह संकल्प बुद्धि की समस्या होती है कि कैसे उसका समाधान किया जाए? यह कुछ कुछ दीवार में हथौड़े से कील ठोंकने के समान है | और यहाँ से संकल्प का नाम बदल के हो जाता है- संस्कार | सम+कार (बार-बार किया जाने वाला संकल्प)|
बुद्धि अगर शुद्ध और शक्तिशाली हो तो वह जीव के मित्र की तरह काम करती है| वह उस संस्कार का शुद्धिकरण करती है, ताकि जीव उससे विचलित न होने पाए और अपने उद्देश्य से न भटके| इस क्रम में वह शुद्ध हुए संस्कार को , जिसे वैदिक भाषा में निर्णय कहते हैं, फिर से मन को transfer कर देती है, और मन उसे ही प्रथमतः प्राप्त संकल्प का विकल्प मानकर delete कर देती है | (ही ही ही! काफ़ि official और technical शब्दों का प्रयोग कर लिया)
पर कभी कभी संकल्प इतना गाढ़ा और इतना शक्तिशाली होता है, कि बुद्धि भी उस संस्कार का समाधान नहीं कर पाती | ऐसी स्थिति में बुद्धि से भी आगे वह संस्कार हमारे अहंकार में धस जाता है | कील दीवार में ठुक जाती है | जब वह चीज हमारे अहंकार से जुड जाती है, तब अहंकार के पास उसका एकमात्र समाधान होता है- जो संकल्प किया है उसे पूरा करो| 
इसे ही इच्छा या कामना (संस्कृत में काम) कहते हैं | और इसी कामना के चक्कर में हमारी बुद्धि, हमारा मन, हमारी इन्द्रियां और हमारा शरीर लगा रहता है| उसी के लिए कर्म करता है | उसी के लिए नए नए उत्पादन (अविष्कार, कार्य, निर्माण आदि) करता है| फिर उस कर्म से उस कामना का समाधान ढूँढता है, जिसे वह फल, किस्मत, भाग्य, पुरस्कार, भोग आदि का नाम देता है | अगर कामना सरल हो तो फल जल्दी मिल जाता है, अधिक कर्म नहीं करना पड़ता; जैसे ऑक्सीजन पाने की इच्छा हो, तो साँस लेने के कर्म मात्र से ही किस्मत खुल जाएगी, इच्छा पूर्ण हो जाएगी| मगर कामना क्लिष्ट हो, तो कर्म लंबा और भाग्य प्रतीक्षारत होता है | जैसे, यदि भारत का राष्ट्रपति बनाने की इच्छा हो, तो ---"
(इसी कारण पूर्व-मीमांसकों ने कर्म के तीन प्रकार बताएं हैं- १. क्रियमाण, जो तुरंत फल देता है| २. अर्जित, जो इसलिए अर्जन किया जाता है, कि कामना पूर्ण होने में अभी कुछ कर्म बाकि है | ३. संचित, जो बाकि बच के हमारे कर्म के पिटारे में जमा हो जाते हैं, अगर हम इस जन्म के पूरा होते तक अपने कामना को न पा सके; और अगले जन्म में हमें बाकी के बचे हुए कर्म ही करने रह जाते है| फिर से शून्य-० से शुरू नहीं होते| खैर इसकी चर्चा बाद में)
इस प्रकार हमने देखा कि कामना दो प्रकार की होती है- १. सरल और  २. क्लिष्ट|
मगर कामना को हम प्रबलता के आधार पर भी बाँट सकते हैं- १. सबल और २. दुर्बल | कामना जितनी सबल होती है, उसके पूर्ण होने में उतना ही कम कर्म और कम भाग्य की आवश्यकता है| मगर दुर्बल इच्छा को अधिक कर्म और अधिक भाग्य कि जरूरत है| अर्थात, सबल कर्म सरल और दुर्बल कर्म अधिक क्लिष्ट दिखाई पड़ते हैं|
 हम जितना अधिक कर्म करते जाते हैं, कामना उतनी ही अधिक प्रबल और भाग्य उतना ही अधिक बेमानी होता जाता है| इसका उल्टा भी ठीक है- अगर हम इच्छा को ही अत्यंत प्रबल कर ले , तो अधिक कर्म कि जरूरत ही नहीं रह जाएगी| मगर इस अवस्था को इच्छा की पूर्णता कहते हैं| यह अवस्था, जीव के लिए संभव नहीं है| भगवान की ही इच्छा पूर्ण होती है| इसीकारण, वे जैसे ही इच्छा करते हैं, वैसे ही उसका समाधान हो जाता है|
उसने कहा कि प्रकाश हो जाए, और प्रकाश हो गया| उसने इच्छा की वो अनेक हो जाए और सारे जीव प्रकट हो गए|
अतः काम ही इस संसार का स्वरुप कारण है| भगवान ने जिस उद्देश्य से यह दुनिया बनाई, उस उद्देश्य के मूल में जो इच्छा है (जिसे वेद 'स इच्छत' आदि से इंगित करता है), वही संसार का दैवीय कारण है| इसी कारण अगर गोस्वामीजी कहते हैं कि "हरि इच्छा भावी प्रबल-", तो कुछ गलत नहीं कहते हैं|

आज इतना ही| इससे तो मात्र काम ही परिभाषित हुआ है| अभी धर्म, अर्थ और मोक्ष बाकी है |
अगली बार, उद्देश्य और आधार की  चर्चा करेंगे|
शेष फिर-
तब तक के लिए- हरे कृष्ण|
गोविन्दं आदि पुरुषं, तं अहं भजामि ||

गुरुवार, 25 मार्च 2010

Shri Vigrah

मूर्त, अमूर्त और श्री विग्रह- ३.
हरे कृष्ण.
दंडवत प्रणाम.
मित्रों, पिछले ब्लॉग पर प्रमाण की चर्चा में कुछ ज्यादा ही समय गवां दिया. आज सीधे मुख्य बात पर आते हैं-
[यद्यपि मैं अपनी चलती फिरती भाषा का ही प्रयोग करूँगा, क्योंकि अन्य कोई भाषा मुझे आती नहीं है. अगर कोई त्रुटी हो जाए तो भक्तजन क्षमा करेंगे.]
भगवान का स्वरुप:-
श्री ब्रह्मा जी ने ब्रह्म-संहिता में भगवान के स्वरुप की चर्चा करते हुए कहा है-
अंगानि यस्य सकलेंद्रिय-वृत्तिमंति 
पश्यन्ति पांति कलयन्ति चिरं जगन्ति.
आनंद-चिन्मय-सदुज्ज्वल-विग्रहस्य 
गोविन्दमादिपुरुषम तमहं भजामि..(३२)
उन आदि-पुरुष श्री गोविन्द का मैं भजन करता हूँ, जिनका श्री विग्रह - आनंदमय, चिन्मय और सत्-मय होने के कारण परम उज्जवल है; जिस श्रीविग्रह के सारे अंग (अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय) समस्त इन्द्रियों की सारी वृत्तियों से संपन्न हैं और जो चिद-अचिद अनंत जगत्समूह का नित्य दर्शन, पालन और नियमन करते हैं.
परम-अंगी
भगवान के सारे अंग समस्त इन्द्रियों की सभी वृत्तियों से संपन्न हैं. हमारी इन्द्रियों में ऐसी बात नहीं होती. हम आँखों से रूप-रंग आदि देख सकते हैं, जिह्वा से षड रसों का अस्वादन कर सकते हैं, नाक से सुगंध ले सकते हैं, त्वचा से छू सकते हैं, कानो से सुन सकते हैं. हमारी पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ अपनी अपनी विषय-वस्तुओं से बंधी हुई है. हम आँखों से स्वाद नहीं ले सकते. इसी तरह अन्य इन्द्रियों से किसी अन्य इन्द्रिय के विषय का भोग संभव नहीं है.
कोई कहे कि अगर हम अपनी पसंदीदा मिठाई देखें तो हम उसका स्वाद देखने मात्र से ही महसूस कर सकते हैं. अतः इन्द्रियों को तत-सम्बन्धी विषयों से बंधा मानना गलत है. मगर यहाँ हम एक छोटी सी भूल करेंगे. आँखे मिठाई को देख के मात्र उसके स्वाद का स्मरण ही दिलाती है. यहाँ हमारी बुद्धि प्रत्यक्ष से रूप का ज्ञान प्राप्त कर के अनुमान द्वारा स्वाद का ज्ञान प्राप्त करती है. फिर आखिर में उस स्वाद कि प्राप्ति जिह्वा को ही होती है. स्वादिष्ट मिठाई देख के आँखों में नहीं, मुंह में पानी आता है.
यहाँ हमें मन और बुद्धि के अनुदान पर अवश्य ध्यान देना चाहिए. असल में मन ही सभी प्रकार के इन्द्रियों और बुद्धि के बीच सेतु का काम करता है. बुद्धि में ही पहले से चखे गए मिठाई का प्रत्यय मौजूद रहता है. हमारा मन आँखों से प्राप्त मिठाई के रूप को बुद्धि के प्रत्यय से मेल करता है. यह विकल्प उत्पन करना ही मन का काम है. फिर जब बुद्धि उसे बताती है कि यह तो वही परिचित मिठाई है, तो फिर मन ही उसके स्वाद को पाने का संकल्प करता है और जिह्वा उस पुराने स्वाद का बुद्धि कि सहायता से रसास्वादन करती है. इसी लिए कहा गया है कि सभी विषय असल में मन से ही बंधे हैं. {अगर आपका मन सचिन तेंदुलकर के ९९ के स्कोर पर है, तो आपके सामने आपकी पसंदीदा मिठाई भी परोसी जाए, तो भी आप उसके स्वाद पर ध्यान नहीं देंगे. कहेंगे क्या?}
मगर श्री भगवान के साथ ऐसी कोई समस्या नहीं है. वे बाह्य रूप से कहीं भी लगे हों, वे आवश्यक विषयों का अस्वादन कर सकते हैं; बगैर तत-सम्बन्धी इन्द्रिय और मन को उस विषय से जोड़े.
एक छोटा सा उदाहरण देता हूँ- भगवान शेष-सैया पर टाँगें पसरे सो रहे हैं, लक्ष्मी जी चरण दबा रही हैं, भक्त जन दर्शन पा रहे हैं, मुनि जन मंगल गा रहे हैं. इसी बीच किसी भक्त ने अपने घर में ही बैठे बैठे श्री भगवान को लड्डू का भोग लगाया. लक्ष्मी जी ने प्रभु से कहा- " स्वामिन! क्या भोग के लिए प्रसाद प्रस्तुत किया जाए?"
नारायण ने कहा- " देवी! अभी पेट भरा है. मैंने अभी अभी एक थाली भर कर लड्डू खाया है."
(साइकिल की घंटी बजाने वाले लोगों से मुझे कुछ नहीं कहना है. छंद-अलंकार के पुस्तक की कौन सी उपमा और कौन  सी अतिशयोक्ति मैंने लगाई है, यह भी विषयांतर की ही बात है. अतः अस्तु! )
देखिये, भगवान को उस भक्त के सामने प्रकट होने की कोई जरूरत नहीं. उसके लड्डुओं को हाथों से उठा के, मुंह में रख के, दांतों से चबा के, जिह्वा से स्वाद ले के, आहार नाल के द्वारा उदरस्थ करने की भी जरूरत नहीं है. फिर भी उन्होंने उन लड्डुओं को पूरा का पूरा भोग लगाया है. यद्यपि वे लड्डू अब भी जैसे के तैसे उस भक्त की थाली में पड़े मिलेंगे; फिर भी भगवान ने उनका स्वाद ले लिया.
इसी लिए गोस्वामी जी ने लिखा है-
"आनन रहित सकल रस भोगी! बिनु बानी बकता बड़ जोगी!!"
भगवान ऐसी युक्ति लगा लेने वाले योगी हैं जो बिना मुख के ही सकल रसों का अस्वादन कर लेते हैं, बिना कंठादी का प्रयोग किये ही अपने भक्तों तक अपनी बात पहुंचा देते हैं.
असल में भगवान आँखों से स्वाद ले सकते हैं, मन से गमन कर सकते हैं,  आकाश (जो कि उनके कान हैं) से बोल सकते हैं. वे किसी भी एक ही इन्द्रिय से बाकी सभी इन्द्रियों का भी काम कर सकते हैं.
वेदों ने भी कहा है- "सर्वतः पाणि पादम तत सर्वतो अक्षि-शिरो-मुखं - - " .
इसी कारण ब्रह्माजी ने भी श्रीनाथ जी के बारे में निर्णय दिया कि-
अंगानि यस्य सकल-इन्द्रिय-वृत्तिमंति..
जगादाधिपति
श्री भगवान समस्त जगती के अधिपति हैं. यद्यपि इस संसार को प्रत्यक्ष रीती से शासित करने की उनको कोई आवश्यकता नहीं है. उनके सम्पूर्ण अंग समस्त रूप से स्थिर रहते हुए भी उनके सभी कार्य सुचारू रूप से पूरा कर सकते हैं. वे सदा अपने चिंतामणि-धाम वैकुण्ठ में अपने भक्तो के साथ आनंद-विनोद करते रहते हैं, फिर भी सदा सर्वदा, एक भी क्षण भूले बगैर अनंत-कोटि ब्रह्माण्ड के लोकों, जीवों और भक्तजनों को देखते रहते हैं, उनका पालन करते रहते हैं और उनका सही रीती से नियमन करते रहते हैं. ऐसा वे चिर काल से करते आ रहे हैं. और आज तक थके नहीं हैं, नाही अपने कर्तव्य से कभी डिगे हैं. अगर वे एक पल को भी अपने कार्य से हट जाए, तो ये पूरा कारोबार - जो जगत-जंजाल के रूप में दृष्टिगोचर होता है;  नष्ट हो कर तिनके की तरह बिखर जाएगा. इसीलिए तो ब्रह्माजी ने कहा है:-
 पश्यन्ति पांति कलयन्ति, चिरं जगन्ति.

सच्चिदानंद 
भगवान सत्-चित-आनंदमय हैं. वे सुख-दुःख से परे हैं. वे तो नित्य-ज्ञान से किसी प्रकार जीवों में उत्पन्न हो सकने वाले द्रष्टा-भावी आनंद से संपन्न हैं. उन्हें किसी अनुकूल की प्राप्ति में सुख नहीं होता, किसी प्रतिकूल के होने से दुःख भी नहीं होता. असल में उनको न तो कोई आशा है, न ही कोई इच्छा. अतः उनके लिए कुछ भी अनुकूल या प्रतिकूल नहीं है. इसी कारण सुख-दुःख भी नहीं है. वे तो अपने भक्त जनों के मधुर लीलाओं को देख देख के आनंद की प्राप्ति करते रहते हैं. उनके भक्त भी इसी प्रकार उनके सुन्दर लीलाओं से आनंद को पाते हैं, और सुख-दुःख से ऊपर उठ जाते हैं.
भगवान त्रिगुणातीत हैं. प्रकृति के तीन गुण हैं- सत्य, रजः और तमः. सत्य से ज्ञान की, रजः से गति की, और तमः से जड़ता की प्राप्ति होती है. मगर भगवान को तो तीनो में से किसी की प्राप्ति नहीं करनी है. बहिरंगा प्रकृति इन्ही तीनों गुणों के द्वारा  इस असत संसार को हमारे सामने सत्य बतलाते हुए प्रकट करती है. (यहाँ मेरे द्वारा इस्तेमाल सत् शब्द प्रकृति के तीन गुणों में प्रथम सत्  से अलग है. यह शब्द सत्ता, या होने के बारे में है. सत्ता से मेरा मतलब है- To be, To exist.) मगर असलियत तो यह है कि सिर्फ भगवान की ही सत्ता है, वही एक मात्र सत् हैं. [अगर आप ज्ञान के मार्ग से जाना चाहें, तो ये मान सकते हैं कि भगवान सम्पूर्ण सतोमय हैं. वे गतिमय राजस और जड़तामय तामस प्रकृति से अलग हैं]
पुनः भगवान चूँकि जड़ता से भिन्न हैं, और इसके आगे हम अपनी भाषा में और कोई निर्णय नहीं दे सकते, अतः वे चित हैं.
यद्यपि हमारा पूर्व-स्थापित सिद्धांत उन्हें जड़ और चेतन दोनों से परे मानता है, तथापि हम मात्र चेतन के द्वारा ही उन्हें जान सकते हैं.
यहाँ पर सत् और चेतन से सम्बन्धी सिद्धांत में अन्यथा-दोष पाया जा सकता है. मगर ऐसा सोचना भूल होगी. भाषा के कमजोरी के कारण ही ऐसा प्रतीत होता है कि पहले त्रिगुनातित कह के फिर सत् कहना, और जड़-चेतन से परे कह के फिर चित मानना बेवकूफी है. असल में प्रकृति के तीन गुणों का नामकरण ही इस प्रकार हुआ है. तामस वह गुण है, जो हमें अन्धकार और अज्ञान (तम) कि स्थिति में ले जाता है. राजस वह है जो गतिमय, कर्ममय और बीजमय (रज) बनाता है. और सत्व वह है जो प्रकाशमय, ज्ञानमय और समझदार बनाता है ताकि हम जाने कि जो जगत है, उसकी सत्ता नहीं है. सत्ता तो एकमात्र ईश्वर की ही है. अर्थात प्रकृति का सत् हमें त्रिगुनातित सत् (असली सत्ता) की ओर प्रेरित करता है, इसी कारण (दिल्ली जाने वाला मार्ग "दिल्ली-रोड" ऐसा जाना जाता है) सत्व, ऐसा नाम उस गुण का दिया गया है. 
पुनः हमारा जगत और शरीर जड़-चेतन मय है. शरीर में जड़ता है, मगर मन-बुद्धि आदि में चेतनता मालूम देती है. इस चेतनता का मूल कारण तो वेद-प्रसिद्द आत्म-तत्व है. आत्मा असल में भगवान का ही अंश है- मामैवंशो जीव . असल में पूर्ण चैतन्य तत्व तो श्री भगवान ही हैं. इस जड़-चेतन मय संसार में जिसे चेतन कह के पुकारा गया है, वह घटाकाश, या दर्पण-प्रतिबिंबित-सूर्य की ही भांति उस चेतन की छाया मात्र है. इसी कारण संसार के जिस वस्तु की व्याख्या जड़ के द्वारा संभव नहीं है; उसे चेतन कह कर पुकारने की परिपाटी चल पड़ी है.
इसी कारण उन भगवान को आनंदमय, चिन्मय और सत्वमय कहा गया है. उन सच्चिदानंद प्रभु का यह दिव्य-वर्णनातीत स्वरुप परम-उज्जवल है. उज्जवल से यहाँ मतलब है प्रकाशमय. उज्जवल से इन्द्रिय-विषय-रूपी सफ़ेद रंग के भ्रम में परने की जरूरत नहीं है. प्रकाशमय भी कहना गलत ही होगा. चूँकि वे ऐसे ही सच्चिदानन्दमय श्री-विग्रह के रूप में भक्तों के सामने प्रकाशित होते हैं; इसी कारण प्रकाशित, प्रकाशमय या उज्जवल कहा है.
और इसी कारण ब्रह्माजी ने कहा है कि:-
आनंद-चिन्मय सत्-उज्जवल विग्रहस्य
गोविन्दमादिपुरुषम तं अहम् भजामि..

शेष फिर, तब तक के लिए
राम-नवमी की शुभकामनाओं सहित.
जय श्री राम.
गोविन्दम् आदिपुरुषम तं अहम् भजामि. 

शनिवार, 20 मार्च 2010

shree vigrah.

मूर्त, अमूर्त और विग्रह.- २.
हरे कृष्ण, मित्रों ! दंडवत प्रणाम.
पिछले ब्लॉग पर हमने देखा कि किस प्रकार हमारी बुद्धि बाह्य-जगत में उपस्थित मूर्त पदार्थों का अमुर्तिकरण कर के उनका चेतन जगत के प्रत्ययों से  सामंजस्य बिठाती है. ज्ञान प्राप्त करने का यही तरीका है.
ईश्वर के बारे में भी हम इसी प्रकार जान पाते हैं.
हम जो प्राकृतिक शक्तियों में ईश्वर को ढूंढते हैं, वह असल में इसी अमुर्तिकरण के स्वभाव के कारण होता है. हम अपने चारों तरफ जगत-विराट-पुरुष को रोज ही देखते हैं. [नास्तिकों को जाने दीजिये, वे बेचारे तो साक्षात् श्री भगवान को हमारी आपकी तरह सामने देखले, और खुद साइकिल पर हों, तो घंटी बजाते हुए बोले- "अबे! सामने से हट. मरना है क्या?"] इतना ही नहीं, उन्हें स्वयं अपने शरीर में, अपने आस पास के लोगों में, जीवों में, पेड़-पौधों में, नदी-पहाड़ों में; हर जगह महसूस करते हैं. फिर जब हम अपने विचारों का इस्तेमाल करते हैं, तब हमें एकदम से पता चलता है कि न तो हम शरीर हैं; न ही चारो तरफ ये सब जंजाल है. हम सब आत्माएं (सॉरी! वेदान्तिक रूप से एक अद्वैत आत्मा) हैं. फिर तो ईश्वर भी आत्म-स्वरुप हो जाता है. एक मात्र परमात्मा, जो संसार की सभी वस्तुओं का प्रत्ययात्मक मूल स्वरुप है.
मगर यह सब तो सामान्य समझ ही है. क्योंकि जिस चीज को असल आत्मा कहते हैं, वह सामान्य समझ से भी विलक्षण वस्तू है. कैसे मान ले की सत्य वस्तु जागतिक या वैचारिक सीमाओं में बंध सकती है? वह अवश्य ही परे है. तुरीय है.
अब चूँकि परे है, तुरीय है; तो फिर वह हमारी ऐन्द्रिक प्रत्यक्षों तथा मानसिक विचार-अनुमानों से अलग हो जाती है. हम न तो  उसे अपनी इन्द्रियों के प्रत्यक्ष कर के जड़ घोषित कर सकते हैं; न ही अपनी बुद्धि द्वारा अनुमानित कर के चेतन-मात्र साबित कर सकते हैं. [मुझे पता है कि बहुत से लोग होंगे जो मुझसे बहस करना चाहेंगे; सत्य को जड़ अथवा चेतन सिद्ध करने के लिए. मगर मैं बहस में थोडा कच्चा हूँ. इसलिए क्षमा. मैं अपनी बात कहूँगा और चलता बनूँगा.]
प्रमाण.
ऐसी ही अवस्था में प्रमाण-वाद का निर्णय करना पड़ता है. जब व्यक्ति यह तय नहीं कर पाता कि इन्द्रियों तथा बुद्धि में से कौन बेहतर ज्ञान दे सकता है.
मैं वैदिक परंपरा में स्थापित प्रमाण वाद का यहाँ जिक्र करना चाहूँगा.
वेदों में चार प्रकार के प्रमाण माने गए हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द और उपमान(सत्-प्रत्यक्ष).
१. प्रत्यक्ष- हम अपनी इन्द्रियों का जड़ जगत से संपर्क कर के जो ज्ञान प्राप्त करते हैं, वह प्रत्यक्ष कहलाता है. अगर प्रत्यक्ष द्वारा ही हमें सच्चे ज्ञान कि प्राप्ति हो जाये, तो फिर अन्य किसी भी प्रमाण कि जरूरत ही नहीं रह जाती है. इसी से कहा है- प्रत्यक्षे किम प्रमाणं.
२.. अनुमान- अगर प्रत्यक्ष से काम न बने, तो हमारी बुद्धि स्वयं स्मृत-कल्पना-संकल्प आदि अनुमानों द्वारा सत्य का निर्णय करने का प्रयास करती है. जैसे अगर सामने रस्सी रखी हो, और हमें सर्प नजर आए, तो बुद्धि यह निर्णय देती है कि अरे यह सर्प तो चल नहीं रहा, फन नहीं फैला रहा; देखो तो जीवित है कि नहीं. हम हिम्मत कर के आगे बढ़ते हैं. बुद्धि कहती है- अरेरे, ये तो रस्सी है. बेकार में डर गए.
          मगर हमने अभी देखा कि वास्तविक सत्य-ज्ञान में प्रत्यक्ष और अनुमान किसी काम के नहीं है. ऐसी ही स्थिति के लिए मनीषियों ने तीसरे प्रमाण कि  स्थापना की है.
३. शब्द - संसार में बहुत से लोग हो गए हैं, जिन्होंने भगवान कि कृपा से सत्य-चित-आनंद प्रभु का साक्षात्कार किया है. यद्यपि वह अवर्णनीय है, फिर भी उन्होंने हम जैसे मुर्ख लोगों के भले के लिए चलती-फिरती भाषा में ही सही, सत्य को वर्णनीय बनाने का प्रयास किया है. भारतीय परंपरा में ऐसे लोगों को आप्त-पुरुष कहते हैं. आज-कल कि भाषा में पारंपरिक-विद्वान; जिसे असली विद्या मिल गयी है. कुछ लोग ऐसे भी हो गए हैं, जिनको सामान्य भाषा में भगवान का वर्णन दोष-पूर्ण लगा; तो भगवान ने कृपा करके उनकी भाषा को इतना शक्तिशाली बना दिया कि वे सही-सही वर्णन कर सके. या यूँ कहिये कि उन पुरुषों के मुख से स्वयं भगवान ने ही सत्य का निर्णय किया. इन दुसरे प्रकार के लोगों को ऋषि कहते हैं.
ऋषियों ने जो उपदेश दिए, वही वेद के नाम से मशहूर हैं. वेद स्वयं भगवान की रचना है, इसलिए अपौरुषेय है, अकाट्य है, सत्य है और स्वतः प्रमाणित है. अन्य विद्वानों ने जो उपदेश दिए, वे शास्त्र के नाम से जाने जाते हैं. ये सारे उपदेश आज भी ग्रन्थ, पुस्तक आदि के रूप में हमारे बीच मौजूद हैं. इन्हें ही समग्र रूप से शब्द प्रमाण कहा जाता है. शब्द प्रमाण सर्व-श्रेष्ठ है, अन्यतम है, क्योंकि यह अनुभूत वाक्य है. मगर इसके साथ भी एक समस्या है. कौन से व्यक्ति के शब्द प्रमाण माने जाए, यह  एक बड़ी समस्या है. कैसे निर्णय हो कि वह सत्य ही कर रहा है? और कैसे निर्णय हो कि वह मेरे हित के लिए ऐसा कह रहा है. कहीं वह ठग तो नहीं, जो अपना उल्लू मेरे डंडे से सीधा करना चाहता है.
यही पर वेद हमारा सहायक होता है. चूँकि वेद स्वयं ईश्वर के उपदेश हैं, अतः उनके बारे में कोई शंका ही नहीं हो सकती. फिर हम उन लोगों के शब्दों पर भी ध्यान दे सकते हैं, जो वेदों के रीती के अनुसार अपना निर्णय देते हैं; न कि मनमाने ढंग से तथा वैदिक पद्धति से परे होकर. ऐसे लोग तो मुख्यतया नास्तिकवाद की ही स्थापना करते हैं. असल में सत्य वस्तु- ईश्वर से उन्हें कोई लेना देना नहीं होता है. वे बस इतना ही जानकर खुश हो जाते हैं कि जड़ क्या है, चेतन क्या है; और कौन सी बातें हैं, जिनका उपदेश करने से चेलों की संख्या बढती है?!!? :)
[इसीलिए प्रमाणिक गुरु की शरण लेना आवश्यक है. क्योंकि एकमात्र वही हैं, जो हमें वैदिक रीती से सच्ची शिक्षा देते हैं, और अन्य प्रमाणिक  आप्त-पुरुषों के शास्त्रों से परिचित करते हैं.]
४. उपमान - यह अंतिम प्रमाण है. कुछ विद्वानों ने इसे प्रत्यक्ष के ही अंतर्गत मन है, मगर मेरी समझ से (भूल-चुक-लेनी-देनी) उपमान ही श्रेष्ठतम प्रमाण है. या फिर यूँ कहें कि यह प्रमाण नहीं है; बल्कि सत्य का साक्षात्कार है. जी हाँ! असल में जब हम प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द आदि प्रमाणों द्वारा सत्य के बारे में जान लेते हैं {के बारे में, न कि स्वयं उसे ही-} तब हमारी ऐसी चेष्टा होती है, कि हम स्वयं उस सत्य को ही जाने. तब उस सत्य के प्रकट होने पर हम उसे पहचान लेते हैं (साइकिल कि घंटी नहीं बजाते); कि यही सत्य है. इसी को उपमान कहा जाता है.
इसे एक उदाहरण से समझते हैं- राम और स्याम दो मित्र थे, राम ने नीलगाय देखी थी; मगर स्याम को पता नहीं था कि नीलगाय क्या चीज है. अतः उसने राम से पूछा कि नीलगाय क्या है? राम ने कहा- नीलगाय एक जंगली पशु है, जो देखने में गाय की ही तरह लगती है. यह तो शब्द से प्राप्त ज्ञान हुआ. यानी स्याम ने नीलगाय के बारे में जान लिया. फिर एक दिन स्याम जंगल में गया. वहां उसे एक जानवर मिला जो गाय की तरह था. स्याम ने जाना कि यही नीलगाय है. इसतरह उपमान द्वारा स्याम ने नीलगाय का सत्य-ज्ञान प्राप्त किया. असल में पहले संता-बंता की जो कहानी कही थी, वह उपमान का ही उदाहरण है. यही थोथे फिलोसोफेर और सत्य-दार्शनिक के बीच का अंतर है. मगर यहाँ एक चीज महत्वपूर्ण है, की उपमान से पूर्व अन्य प्रमाणों द्वारा सत्य की व्यावहारिक जानकारी लेना आवश्यक है. अगर स्याम ने राम से नीलगाय के बारे में शब्द-ज्ञान नहीं लिया होता तो वह नीलगाय को भी गाय ही समझ लेता. यह तो साइकिल की घंटी बज जाती. :)
अतः पहले के तीनो प्रमाणों का भी महत्त्व है.
मगर चूँकि उपमान असल में साक्षात्कार का नाम है, तो चलिए; हम भी इसे प्रमाण की श्रेणी से हटा देते हैं और शब्द को ही महत्तम प्रमाण मन लेते हैं.
शब्द प्रमाण के आधार पर ईश्वर का स्वरुप:
                  मैं शब्द प्रमाण का ही प्रयोग करूँगा; क्योंकि स्वयं मुझे प्रत्यक्ष से सत्य नहीं मिल पाया और मेरी बुद्धि  ने तो कुछ दिनों पहले तक मेरे साथ खेल ही किया है. इसलिए मैं स्वयं तो कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हूँ. इसलिए मुझे क्षमा करे, और वैदिक शास्त्रों के शब्दों पर ध्यान दे.
जब ईश्वर ने ब्रह्माण्ड के पहले ऋषि- चतुर्मुख ब्रह्मा को वेद प्रदान किया, तब उन्होंने ईश्वर की स्तुति की. संस्कृत भाषा में वह स्तुति ब्रह्म-संहिता के नाम से प्राप्त होती है. उसी ब्रह्म-संहिता के पांचवे अध्याय में एक श्लोक में ब्रह्माजी ने भगवान का स्वरुप बतलाते हुए कहा है-
अंगानि यस्य सकलेंद्रिय-वृत्तिमंति ,
पश्यन्ति, पांति, कलयन्ति, चिरं जगन्ति,
आनंद-चिन्मय-सत्-उज्जवल विग्रहस्य;
गोविन्दम् आदि-पुरुषम, तम अहम् भजामि..
मैं वेदों का ज्ञानी तो नहीं हूँ. मगर गुरुदेव के उपदेशों से, वैष्णवों के सत्संग से और सज्जनों के चर्चा से कुछ कुछ मगजमारी कर बैठा हूँ. वैसे तो शास्त्रों में भगवान के स्वरुप का अनेक प्रकार से विस्तृत वर्णन है, मगर मैं यहाँ अपनी शक्ति के अनुसार मात्र इसी श्लोक पर चर्चा करूँगा. हो सकता है, मात्र इसी श्लोक को समझने में ही मेरी बुद्धि टें बोल जाए; मगर इतने प्रयास से भी मैं अपने प्रयास को सार्थक समझूंगा. सुधि जन और वैष्णव-ठाकुर-गण मेरी घृष्टता को क्षमा करें.
वैसे आज काफी कागज़ खर्च कर चुका (अबे! कागज नहीं, ये तो ब्लोग्पोस्ट है); अतः आज विदा. अगली बार यहीं से शुरू होंगे और इस श्लोक में भगवान के स्वरुप का जो दिग्दर्शन कराया गया है; उसपर क्षमतानुसार दिमाग की दही करेंगे. तब तक के लिए- जय श्री राम.
हरे कृष्ण.
गोविन्दम् आदि पुरुषम, तम अहम् भजामि.

गुरुवार, 18 मार्च 2010

Personized, Impersonized and the Form.-1.

मूर्त, अमूर्त और श्रीविग्रह. 

हरे कृष्ण.
मित्रों! पिछले दिनों जिस दुविधा में पड़ा था, वह असल में बुद्धि की बदमाशी ही थी. अन्यथा सत्य को क्या लेना देना साकार होने से, या निराकार होने से?!!
बुद्धि की एकमात्र शक्ति है विचार करने की, सो कर रही थी. और उसी विचार के प्रभाव से उसने मेरे साथ खिलवाड़ करने का प्रयास किया. मगर फिर बुद्धि पर श्रील गुरुदेव ने कृपा कर दी. वे स्वभावतः कृपामय हैं, सो जान गए की मेरे दोस्तों ने ही मेरे साथ खेल कर दिया है. उनकी कृपा का असर हुआ कि दोस्तों ने फिर से दोस्ती निभाई. जिस बुद्धि ने विभ्रम दिया था, उसी बुद्धि ने विवेक के साथ मिलकर रास्ता ढूंढ़ निकला.
मैं यहाँ अपने प्रश्न और उसके उत्तरों पर चर्चा करना उचित नहीं समझता. नीलेश भाई ने मदद करने की भरसक कोशिश की, मैं उनका शुक्र-गुज़ार हूँ. आपके विचार काफी मददगार साबित होते हैं. लगे रहो नीलेश भाई, संसार में समझदारों की बड़ी जरूरत है. खासकर आजकल, जब इंसान सिर्फ भौतिकता के पीछे लगा है, अपने अभौतिक अस्तित्व और उसकी आवश्यकताओं को भूल गया है.
खैर मूल मुद्दे पर आता हूँ.
दर्शन और फिलोसोफी में अंतर.
मैं जिस दर्शन और फिलोसोफी के चक्कर में पड़ा था, वो बड़ी बेकार चीज है. हा हा हा. (उतनी भी बेकार नहीं है, असल में मेरी ही औकात नहीं है. इसलिए- अंगूर खट्टे हैं.)
दर्शन भारतीय शब्द है, जिसका मतलब है- 'हाथ पर रखे हुए आंवले के सामान देखना'.
ठीक उलट फिलोसोफी लैटिन शब्द है, जिसका मतलब है- 'ज्ञान से प्रेम करना.'
शोर्ट-कट में बताऊँ तो भारतीय मनीषी चाहते हैं कि कर्म हो, उपासना हो, अथवा ज्ञान हो; सभी मात्र साधन ही हैं. हमें तो सत्य का साक्षात्कार ही करना हैं. नहीं तो पूजन, कर्म, जानकारियां; सब बेकार हैं. हमारा ज्ञान वह है, जिसे जानने के बाद हम उसे पा लेते हैं. मगर पश्चिम में विद्वान मात्र जानने के पीछे लगे रहते हैं. देखना और पाना शायद उनके बस की बात नहीं (तो ट्रक कि बात होगी.)
ये अंतर कुछ ऐसा है, कि सरदार संता सिंह को पता है कि एक पेड़ है. जिसका नाम आम का पेड़ है. उसमे बड़ी हरियाली होती है. उसका फल कच्चे में भी खट्टा-मीठा होता है. मगर पका हुआ आम बड़ा ही मीठा और स्वादिष्ट होता है.
सरदार बंता सिंह को भी ये सब पता है, मगर उसे एक ऐसी बात पता है जो संता सिंह को नहीं पता. कि ये पेड़ कहाँ है? बंता सिंह पेड़ तक पहुंचा, पेड़ पर चढ़ा और उसका मीठा स्वादिष्ट फल खाया. दूसरी ओर बंता सिंह आम के पेड़ की चर्चा करता रहा, सेमिनार में लेक्चर देता रहा. और फिर उसने आम पर एक ५०० पन्ने की पुस्तक भी लिख डाली, जिसके लिए उसे नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
कमोबेस ये पश्चिमी फिलोसोफर का हाल हम सब लोगों का हो गया है.
खैर, आगे जो लेक्चर मैं भांजने वाला हूँ, या जो चर्चा करने वाला हूँ (शायद जीवन भर में ५०० पन्ने तो लिख की डालूँगा. ही ही ही.); उसके लिए आप शंकराचार्य, मध्वाचार्य, बलदेव-विद्याभूषण, प्लेटो, अरस्तु, स्पिनोजा, जोन  लॉक , बर्कले इत्यादि को पढ़ सकते हैं- प्रेफेरेंस के लिए.
[अगर कोई बात भूल वश गलत लिख दूँ, तो कृपया मुझे क्षमा करेंगे. क्योंकि मैं उम्र, समझ और अनुभव में बहुत छोटा हूँ.]


मुर्तिमय संसार.
ये संसार दो प्रकार के पदार्थों से भरा पड़ा है- जड़ और चेतन. एक तीसरे प्रकार का पदार्थ भी है, जो दोनों से विलक्षण है- ईश्वर. फिर भी कुछ लोग अपनी समझ के अनुसार उसे भी चेतन ही मान के काम चलाते हैं. अभी चेतन पदार्थों पर चर्चा करना विषयांतर होगा- आगे देखेंगे. जड़ मय संसार मुर्तिमय पदार्थों से भरा पड़ा है. चाहे वे साकार हों, या निराकार. सब के सब मूर्त  हैं. मूर्त माने वस्तुगत सत्ता वाले. जैसे सपने में देखी गई हूर-परी, माने ड्रीम गर्ल का असल जीवन में कोई वस्तुगत अस्तित्व है या नहीं, ये बहस का विषय है. परन्तु आपकी धरमपत्नी की वस्तुगत सत्ता में आप कैसे यकीन नहीं करेंगे? [भागवान, जरा एक रोटी और लाना.]
नदी, पहाड़, हवा, पानी, दिल्ली, लन्दन, आप, मैं, धरती, आकाश; सभी मूर्त हैं. इसी कारण हम कभी कभी इन सब में इनका अपना-अपना व्यक्तित्व खोज लेते हैं. गंगा की अपनी कहानी है. हिमालय का अपना अतीत है. हवा की अपनी खुमारी है. पानी का अपना मिज़ाज है. दिल्ली की अपनी एक धड़कन है. लन्दन का अपना एक शबाब है. आपकी अलग, और मेरी अलग शख्सियत है. यह जो शख्सियत है, जो व्यक्तित्व है; वही मूर्त होने के लिए जिम्मेदार है.
मगर इन सब बातों में आपको ये नहीं लगता कि इन सब चीजों का व्यक्तित्व कही न कही हमारे अपने दिमाग का खेल है!?!
जी हाँ! बुद्धि के बल को कम मत मानिए. यहीं से तो चेतन पदार्थों कि दुनिया शुरू होती है.

मूर्ति मय संसार का अमुर्तिकरण.
असल में हम जो कुछ भी जान पाते हैं, सब अपनी बुद्धि की ही वजह से जान पाते हैं. हालाँकि चुनांचे इस काम में हमारी इन्द्रियां और आस पास की चीजें और लोग भी मदद करते हैं. मगर उनका महत्त्व सिर्फ प्रमाण की तरह ही है. उस प्रमाण का क्या और कैसा इस्तेमाल करना है, ये हमारी बुद्धि पर निर्भर करता है. प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द और सत्-प्रत्यक्ष; ये चार तरह के प्रमाण लगभग सभी दार्शनिकों ने माने हैं. कुछ कम, कुछ ज्यादा. मगर इन प्रमाणों के द्वारा बुद्धि ही ज्ञान का निर्णय करती है. अतः हे बुद्धि, हे विमले, हे शारदे, हे विद्ये, हे अविद्ये; तुझे शत शत नमन.
बुद्धि इन्द्रिय आदि की मदद से जिन वस्तुओं का प्रत्यक्ष करती है; वे मूर्तिमान होते हैं. बुद्धि उन सब का अमुर्तिकरण कर डालती है. नतीजा! सभी चीजें, जड़-पदार्थ से बदल के विचार मात्र बन जाते हैं. हमने आँखों से सेब देखा. गोल गोल. लाल लाल. खाया. मीठा मीठा. पचाया. (पेट के लिए ठीक है). बुद्धि ने सेब का एक विचार (संस्कृत में इस विचार को प्रत्यय कहेंगे) बना लिया. हम इस विचार के रूप में ही सेब को जानते हैं. अन्यथा किसी मुर्तिमय रूप में हम सेब को नहीं जानते. 
यह विचार, या प्रत्यय दो तरह का होता है- विशेष और सामान्य. (महर्षि गौतम और कणाद की जय हो).
किसी एक या दो, या तीन, या फिर गिने जा सकने वाले संख्या में अगर हम चीजों का प्रत्यक्ष करेंगे तो हमें उनका विशेष ज्ञान ही प्राप्त हो पायेगा. सामान्य नहीं. सामान्य तो वह है जो किसी जाति विशेष के सभी वस्तुओं में विद्यमान हो. जैसे कोई मनुष्य काला है, कोई गोरा है, कोई नाटा है , कोई लम्बा है, कोई संत है, कोई पापी है. मगर काला, गोरा, नाटा, लम्बा, संत, पापी; ये सब तो विशेष बातें हो गयी. मनुष्यत्व एक ऐसी चीज है, जो सभी मनुष्यों में होती है. जिसके कारण कोई मनुष्य, मनुष्य होता है. सामान्य का विचार भी हमारे बुद्धि में है. सिर्फ विशेष ही हो, ऐसी बात नहीं है. हाँ! मगर सामान्य का ज्ञान प्रत्यक्ष द्वारा संभव नहीं है. क्योंकि मनुष्यत्व को जानने के लिए संसार के तीनो कालों के सभी मानुषों का प्रत्यक्ष करना ही संभव नहीं है. कुछ लोग तो मर चुके हैं, कुछ जन्मे ही नहीं है. और कुछ लोग अफ्रीका के घने जंगलों में रहते हैं; जहाँ जाते जाते कहीं हम ही न मर जाए. (भगवान बचाए! अभी तो आपने लम्बी उम्र जीना है. बहुत सालों तक हमारे दिमाग की दही करनी है.)
तो जी बात ये है कि मुर्तिमय पदार्थों का प्रत्यक्ष से जो ज्ञान प्राप्त होता है, वह विशेष ही होता है; सामान्य नहीं. उसके लिए तो अनुमान और शब्द प्रमाण पर भरोसा करना पड़ता है. और सचमुच ये दोनों काफी कारगर भी होते हैं. शब्द प्रमाण तो वैसे भी काफी शक्तिशाली माना गया है.
अतः हमारी बुद्धि मुर्तिमय पदार्थों को अमुर्तिमय बनती है. यह अमुर्तिकरण कि शक्ति हमारी बुद्धि में ही है. और कही नहीं. क्या आप किसी साकार टेबल को निराकार बना सकते हैं, बगैर बुद्धि के; और तब भी उसका अस्तित्व बना रहे?
बुद्धि में विचार या प्रत्यय के रूप में वस्तु का अस्तित्व बना रहता है. मगर यह सत्ता वस्तुगत न हो कर आत्मगत/बुद्धिगत  होती है. और इस अमुर्तिकरण की प्रक्रिया में बुद्धि का वस्तु से जो समबन्ध बनता है, वही उस वस्तु के व्यक्तिकरण का जिम्मेदार है. क्योंकि मूर्त को अमूर्त करने के लिए पहले मूर्ति-तत्व को वस्तु के अस्तित्व से अलग जानना जरूरी है. 

मेरी समस्या से इन सब बातों का लेना-और देना.
असल में मुझे तो न उधो का लेना है, न माधो को देना है. मगर मेरी समस्या श्री भगवान के स्वरुप से सम्बंधित थी. यद्यपि यह कहा नहीं जा सकता की ईश्वर जड़ है या चेतन है! तथापि लोगों ने अपनी अपनी तरह से उसे किसी न किसी प्रकार के पदार्थ की श्रेणी में जरूर रखा है. यहाँ उन सब का विवेचन करना सर-दर्द से कम नहीं है. मगर मैं अपने विचार (हैं!) जरूर बताना चाहूँगा.
मेरे विचार से ईश्वर चेतन भी है, जड़ भी है और इन दोनों से अलग एक विलक्षण तीसरी वस्तु है. 
ईश्वर के पक्ष या विपक्ष में, आस्तिक या नास्तिक कोई न कोई विचार या संकल्प या निर्णय या बोध हमारी बुद्धि में अवश्य रहता है. पाश्चात्य दार्शनिक इसे ईश्वर का सहज प्रत्यय कहते हैं. यानी by-birth-idea. इसी कारण ईश्वर का आत्मगत / बुद्धिगत अस्तित्व तो मानना ही पड़ेगा. ईश्वर का यह अस्तित्व चेतन जगत में है. अतः ईश्वर एक चेतन पदार्थ है.
पुनः  जितने भी लोग ईश्वर को मानते हैं, उन्हें ईश्वर के वस्तुगत अस्तित्व में विश्वास है. जैसे आकाश प्रत्यक्षतः निराकार है, असीम है; फिर भी उसका वस्तुगत अस्तित्व तो है. परमाणु सूक्ष्म है, अज्ञेय है, अप्रत्यक्ष है; फिर भी उसकी वस्तुगत सत्ता है. अर्थे, वह मूर्तिमान जड़-द्रव्य है. इसी प्रकार ईश्वर की सत्ता जड़-जगत में भी सिद्ध होती है. {लगता है कुछ लोगों की त्योरियां चढ़ गयी है. "प्रिय रंजन, यहाँ मिल गए हो. कहीं और मत मिलना. वर्ना...."}
              ये दोनों बातें सत्य हैं. मगर फिर भी मेरे लिए ईश्वर न तो जड़ है, न चेतन. वह तो विलक्षण ही है. जड़ तत्व का सर्वश्रेष्ठ  उदाहरण है - संसार. और चेतन तत्व का उदाहरण है- आत्मा. सच में ईश्वर मूर्तिमान स्वरुप में विराट-जगद-पुरुष है. सच में ईश्वर अमूर्त स्वरुप में परम-जगद-आत्मा है. मगर यह भी सच है की ईश्वर मूर्त-अमूर्त, व्यक्त-अव्यक्त, दोनों से भी परे सच्चिदानंद है.
आज हमने मूर्त और अमूर्त, व्यक्त और अव्यक्त दो प्रकार के ज्ञान और तत्संबंधी पदार्थ के दो प्रकारों तथा ईश्वर के दो स्वरूपों की चर्चा की है. अभी वक़्त कम है, सो मित्रों नींद-मारने जाता हूँ. कल उठ कर ऑफिस भी जाना है. अभी तीसरे ज्ञान की चर्चा बाद में करेंगे; जो व्यक्त और अव्यक्त के बाद की बात है :- स्वरुप. 
तब तक के लिए-
हरे कृष्ण.
गोविन्दम्, आदि-पुरुषम, तम-अहम् भजामि.  
 

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

Ek Prashna aap sab se - - - - ?

हरे कृष्ण.
ब्लॉग के सभी पाठको और मित्रो को मेरा प्रणाम.
पिछले कई दिनों से ब्लॉग पर कुछ लिखने या पढने का समय नहीं मिला. मैं तो समय से ऑन लाइन भी नहीं हो पा रहा था. इसके लिए आप सब से क्षमा मांगता हूँ. कुछ कार्य स्थल कि व्यस्तता थी और कुछ निजी परेशानियाँ. मगर इसी बीच एक दार्शनिक कठिनाई ने आ घेरा. मैं हर जगर उसका हल धुन्धता फिर , मगर जब कहीं चैन न आया तब आप मित्रों कि याद आई.
कल नीलेश जैन का ब्लॉग पढ़ा, काफी दिनों बाद. नीलेश भाई आप काफी भावुक हो और अपने मुझे भी भावुक कर दिया. खैर इसकी चर्चा फिर कभी करेंगे. अभी तो मैं अपनी परेशानी आप सब से बांटना चाहता हूँ.
संस्कृत भाषा संसार की प्राचीनतम और श्रेष्ठतम भाषा है. इसमें तो कोई दो मत नहीं है. संस्कृत भाषा की सबसे बड़ी खूबी है उसके शब्द. संस्कृत शब्दावली अत्यंत वृहद् और सटीक है. संसार के लगभग प्रत्येक वस्तु, भाव और विचार के लिए संस्कृत में शब्द मिलते हैं. संस्कृत में समानार्थी शब्द भी हैं, मगर वे पुर्णतः समानार्थी नहीं कहे जा सकते. एक ही वस्तु या भाव के लिए दो शब्द मिलते हैं, मगर उनका अर्थ बिलकुल भिन्न होता है. दोनों शब्द, उस वस्तु या भाव के बिलकुल दो अलग अलग गुणों, विशेषताओ तथा पक्षों को सामने रखते हैं. उदाहरण के लिए- पावक और अग्नि दो समानार्थी शब्द हैं. मगर पावक वह है जो गर्मी देता है, गर्म होता है और जिसके प्रयोग से लोग अपना भोजन पका सकते हैं. दूसरी तरफ अग्नि वह है जो हर चीज को जला देती है. अर्थात दोनों शब्द इंगित तो एक ही वस्तु को करते हैं, मगर दो भिन्न दृष्टिकोणों से. ऐसा लगभग हर भाषा के साथ होता है. संस्कृत में तो यह गुण विशेषतः पाया जाता है. अब वीर-अर्जुन के दोनों नामो को देखिये;- पार्थ और सव्यसाची. पार्थ वह है जो पृथा (कुंती माता) का पुत्र है. और सव्यसाची वह है जो एक ही बार में दोनों हांथो का प्रयोग कर के दो अलग अलग कमानों से बाण चला सकता है. यहाँ भी दीखता है, की दो समानार्थी शब्द असल में भावार्थ में सामान भले ही हो; मगर शब्दार्थ में भिन्न भिन्न होते हैं. 
अब मैं अपने समस्या पर आता हूँ.
ईश्वर के तीन स्वरुप माने गए हैं - ब्रह्म, परमात्मा और भगवान. कुछ लोगो ने दो ही स्वरुप माने हैं - सगुण तथा निर्गुण. असल में ब्रह्म, परमात्मा और भगवान एक ही  भगवान् के तीन नाम हैं, मगर तीनो के शब्दार्थ बिलकुल अलग अलग है. ब्रह्म वह है जो इस संसार का मूल है और जिससे ये जगत उत्पन्न हुआ है. अर्थात दृश्य जगत का कारण.
परमात्मा वह है जो इस विराट पुरुष (जगत-पुरुष) के आत्मा के रूप में जगत- आत्मा बनकर सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है. 
भगवान वह है जो भक्तो का प्रिय है, भजन के योग्य है, और प्रेम तथा सत्कार का लक्ष्य है.    
विशेष संस्कृत में नहीं जाऊँगा. मन हो तो संस्कृत व्याकरण या शब्दकोष में आप लोग मेरी बात की जांच कर सकते हैं.
ऐसे ही भगवान के अनके नाम संस्कृत में तथा अन्य भाषाओँ में भी मिलते हैं. उन सभी नामो में मेरी श्रद्धा है, तथा  सभी  स्वरूपों पर विश्वास करता हूँ. 
परन्तु मुझे भगवान के निराकार स्वरुप पर विश्वास नहीं है.


बात जरा अटपटी लग सकती है. मगर यही मेरी समस्या है.


पिछले दिनों मैं प्लेटो तथा अरस्तु के दर्शन का अध्ययन कर रहा था. उन दोनों ने लगभग एक ही प्रकार से इस संसार को दो वस्तुओं से निर्मित माना है- जड़ पदार्थ और आकृति. प्लेटो ने जिसे प्रत्यय ( आइडिया ) कहा है, उसे ही अरस्तु आकृति कहते हैं. और दोनों के लिए आकृत या प्रत्यय ही ईश्वर है. जड़ पदार्थ आकृति हीन है, यानी निराकार है, मगर वह ईश्वर नहीं है. बल्कि ईश्वर वह है जो असल में सभी आकृतियों का मूल तथा आदर्श है. विशेष अन्दर जाना उचित नहीं है, मगर उदहारण के लिए- एक लकड़ी का टेबल है. उसमे जड़ पदार्थ तो है लकड़ी मगर उसका चौकोर होना तथा चौपाया/तिपाया होना ही उसका आकार है.  यद्यपि पदार्थ और आकार कभी अलग अलग नहीं दीख पड़ते , परन्तु अगर चौकोर होनो और चौपाया/तिपाया होना हटा लिया जाये तो जड़ पदार्थ (लकड़ी) निराकार  ही बचेगी. अर्थात इन पश्चिमी दार्शनिको के मत से ईश्वर निराकार नहीं है. बल्कि यह जड़ जगत ही असल में निराकार है. ईश्वर ने ही इसे आकार दिया है. बैबल में भी- उसने हमें अपनी ही छवि दे के रचा, अतः हमारा भी आकार उसके ही जैसा हो गया.
अब संस्कृत और भारतीय दर्शन की बात करते हैं.  जहाँ तक मेरी समझ है, ( अगर भूल रहा हूँ, तो याद जरूर दिलाईयेगा.) की मध्वाचार्य के समय तक संस्कृत के किसी भी कवि ने किसी भी पुस्तक में ईश्वर को निराकार   कह के संबोधित नहीं किया है. अवश्य ही संस्कृत में ऐसे कुछ शब्द हैं, जिनका अनुवाद भूले और भोले हिंदी या अन्य भाषाओ के लेखक और कवि निराकार में कर देते हैं, मगर ऊपर चर्चा किये गए व्याकरण के गुण के अनुसार असल में कहीं भी उन संस्कृत शब्दों के अर्थ निराकार से नहीं है. यहाँ पर मैं कुछ प्रसिद्द संस्कृत शब्दों का उल्लेख करना चाहूँगा  ; -
अव्यक्त - अव्यक्त के दो मतलब होते हैं. पहला वह जो व्यक्त न हो. यानी जिसे प्रत्यक्ष द्वारा प्रमाणित नहीं किया जा सके (न्याय दर्शन का अर्थ). जैसे - भावना, मन, आत्मा, इत्यादि. इसके ठीक विपरीत का शब्द होगा- व्यक्त, जो प्रत्यक्ष है.
दूसरा मतलब है वह जो व्यक्तीकृत न हो. अंग्रेजी में इसके लिए एक शब्द है- Impersonified. उदाहरण के लिए सभी जीव जंतु तो व्यक्तीकृत होते हैं परन्तु निर्जीव पदार्थ, जैसे पहाड़, नदी, ग्रह इत्यादि का व्यक्तिकरण नहीं हो सकता. इसका ठीक उल्टा होगा व्यक्तित्व अर्थात personality/personaified.
इन दोनों ही अर्थों का वस्तु के आकार से कुछ भी लेना देना नहीं है. परमाणु हमारे लिए व्यक्त नहीं है, मगर इसका यह मतलब नहीं की उसका कोई आकार नहीं है. भारत देश का हम व्यक्तिकरण नहीं कर सकते, मगर इस से भारत निराकार साबित नहीं हो जाता.
निर्गुण - इस सब्द के भी दो अर्थ हैं. सांख्य दर्शन के अनुसार जो सत्व, राजस और तामस; इन तीन गुणों(वस्तु की परिस्थिति) से परे है, वही निर्गुण है. जैसे- निर्वाण. इसके उलटे शब्द होता है त्रिगुणात्मक,  जो तीनो गुणों से घिरा हुआ है.
दूसरा मतलब  है वैशेषिक वालों का, की निर्गुण वह है, जिसमे कोई भी गुण(विशेषता) न हो.[यद्यपि मैंने यहाँ सबसे सटीक भाषा का प्रयोग नहीं किया है, मगर हिंदी आखिर तो संस्कृत की बेटी है, सो जरा छोटी है.] उदाहरण के लिए - आत्मा. इसके विपरीत शब्द होगा- गुणवान.
इन दोनों अर्थो का भी निराकार से कुछ लेना नहीं है. क्योंकि गुण का अर्थ कहीं भी आकार नहीं है. हाँ, बड़े या छोटे आकार का होना जरूर एक गुण है. और किसी आकार का न होना भी एक गुण ही है. यह तो आकाश का गुण है. अतः निराकार आकाश कहीं से भी निर्गुण नहीं नजर आता है.
निर्विशेष - यह शब्द शंकराचार्य का प्रिये है, और उन्होंने हर बार ईश्वर के निर्विशेष स्वरुप की महत्ता स्थापित की है. उस चर्चा में जाना यहाँ विषयांतर होगा. 
निर्विशेष का सीधा सा वही अर्थ है जो वैशेषिक दर्शन वालों ने बताया था- वह जो विशेष तथा सामान्य से हीन है. यहाँ विशेष और सामान्य का अर्थ जान लेना जरूरी है. सामने वह है जो एक जाति की सभी वस्तुओं में पाई जाती है. जैसे सभी गायें चौपाई होती हैं, अतः चौपाया होना गायों का सामान्य गुण है. परन्तु किसी के गाय को दुसरे गाय से भिन्न किया जा सकता है, जैसे काली गाय और सफ़ेद गाय. अतः काला और सफ़ेद होना दो अलग अलग गायों का विशेष गुण है. इस से तो  निर्विशेष का सीधा सीधा अर्थ है सभी सामान्यताओ  और विशेषताओ से परे. इसका एकमात्र उदाहरण संसार में ईश्वर ही है. इसी कारण यह शब्द शंकराचार्य को प्रिये है. बाकी सभी शब्दों के अन्य उदाहरण भी मिल जाते हैं. मगर निर्विशेष सिर्फ ईश्वर ही है.
मगर  इस शब्द से भी यह साबित नहीं होता की ईश्वर निराकार  है. 


अब मेरी यही समस्या है. 
आप सब लोग मेरी समस्या को हल करने में मेरी मदद करें.
क्या ईश्वर का कोई निराकार स्वरुप है?
अगर है तो किसी भी प्राचीन या मध्य- युगीन दार्शनिक ने निराकार शब्द का प्रयोग क्यों नहीं किया?
अगर किया है, तो किस संस्कृत पुस्तक में इस शब्द का उल्लेख है?


[तुलसीदास के रामचरितमानस में उत्तरकाण्ड में भगवान शिव के लिए एक शब्द आता है- निराकर्मोंकार्मूलम तुरीयं. मगर यह पद तुलसीदास का नहीं है, बल्कि पूर्व कल्प में किसी घोर कलयुग के समय उज्जैनी के एक ब्रह्मन ने अपने शिष्य को शिव के शाप से बचाने के लिए यह पद रचा था. अतः इसका प्राचीन या मध्य युगीन भारतीय दर्शन और संस्कृत भाषा से कोई लेना देना नहीं है, ऐसा मेरा मानना है.]


अगर किसी के पास मेरे प्रश्न का कोई उत्तर हो, तो कृपया कमेन्ट करे. मेरा यह नया पोस्ट आपका इन्तेजार कर रहा है. और मैं तो कब से सत्य के प्रतीक्षा में हूँ.
जय श्री राम.
हरे कृष्ण.